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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद जीवास्तिकाय कहेंगे तो उसके प्रदेश असंख्य होंगे, क्योंकि जीव असंख्यप्रदेशी हैं । उसको अनन्त नहीं कहा जा सकता और सम्पूर्ण जीवों के समूह को जीवास्तिकाय कहने से ही जीवास्तिकाय अनन्त प्रदेशों की सही परिभाषा बैठ सकती है। 100 इस प्रकार ये सभी आत्मपर्याय अलग-अलग अर्थ को लेकर प्रयुक्त हैं । यद्यपि ये सभी एक आत्मा के अर्थ में ही हैं, फिर भी एक पर्याय के अर्थ को दूसरे पर्याय के अर्थ में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। 3. जैनागमों में आत्मा का स्वरूप विवेचन आत्म-स्वरूप का प्रश्न जैन परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण चर्चित विषय रहा है । जैन परम्परा में इस प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर की दोनों दृष्टियों निश्चय और व्यवहार का प्रयोग जैन आगमों में मिलता है। वस्तुतः आत्म-स्वरूप के प्रश्न के समाधान में ही नहीं अपितु जैन परम्परा, जैन दर्शन के हर प्रश्न के समाधान में इन दोनों दृष्टियों का बहुलता से उपयोग हुआ है । जैन आगमों के अनुसार आत्मा का स्वरूप विविध विशेषताओं से युक्त है। जैन आगमानुसार आत्मा उपयोगमय, परिणामी, नित्य, अमूर्त, कर्ता, साक्षात्-भोक्ता, स्वदेह परिमाण, असंख्यात प्रदेशी, पौद्गलिक अदृष्टवान आदि विशेषताओं से सम्पन्न है । आत्मा उपयोगमय है - यद्यपि आत्मा स्वरूप से अमूर्त और चैतन्यमय है, किन्तु प्रत्येक संसारी जीव शरीरधारी है। शरीरधारी होने के कारण वह मूर्त है । उसका चैतन्य अदृश्य है । वह क्रिया अथवा प्रवृत्ति के द्वारा दृश्य बनता है । जीव की पहचान ज्ञान से नहीं होती अपितु ज्ञानपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति से होती है । भगवती में जीव की प्रवृत्ति की छह अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है—उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम । जीव उत्थान, गमन, शयन, भोजन आदि आत्मभावों के द्वारा अपने चैतन्य को अभिव्यक्त करता है । ये सारी जीव की प्रवृत्तियां विशिष्ट चेतनापूर्वक होती हैं और यह चैतन्यपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति ही जीव का लक्षण बनती है (भगवती, 2.10.136-137 [282] ) ।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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