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________________ पञ्चभूतवाद 87 अभय और यही ब्रह्म है। तब वे दोनों शान्तचित्त हो चले गये। (आगे इसी प्रसंग में प्रजापति ने कहा कि) इसी कारण से, जो इस समय केवल संसार के सुखों को ही मानते, जो न दान देने वाले हैं, न श्रद्धा करने वाले, न ही यज्ञ करने वाले हैं, वो असुर कहलाते हैं और इसलिए वे मृत शरीर को भिक्षा, वस्त्र और अलंकार से सज्जित करते हैं, यही सोचकर कि इससे सम्भवतः परलोक जायेंगे" (छान्दोग्योपनिषद्, 8.7.2-3, 8.8.2-3, 5 [241])। छान्दोग्योपनिषद् का यह उल्लेख हमें महत्त्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध कराता है। इससे यह पता चलता है कि आर्यों से भिन्न एक दूसरी जाति थी, जिसे असुर कहते थे, जो मृत शरीर को अच्छे वस्त्र और आभूषणों से मंडित करती थी और खाना देती थी, जिसमें कि वे पुनर्जन्म के समय इन वस्त्राभूषणों से परलोक में उन्नति कर सकें और ये ही वे लोग थे जो शरीर को आत्मा मानते थे। इस प्रकार ये संसारी सुखों को मानने के कारण लोकायत और तज्जीव-तच्छरीरवाद के अन्तर्गत गिने जा सकते हैं किन्तु अन्तर यही है कि छान्दोग्य के ये देहात्मवादी परलोक को मानने वाले थे, जहाँ मृत्यु के बाद शरीर जाता है और मृत शरीर को दिए वस्त्राभूषणों से वह उन्नति करता है। यह असुर रीति कहलाती थी। इस आधार पर सुरेन्द्रनाथ दास गुप्ता का कहना है कि यह बहुत सम्भावित है कि लोकायत सिद्धान्त का आरम्भ पूर्वगामी सुमेर संस्कृति में हुआ, जहाँ यह मान्यता थी और मृत शरीर को वस्त्राभूषण से मंडित किया जाता था। यह मान्यता आगे जाकर इतनी बदल गई कि ऐसा तर्क दिया जाने लगा कि जब आत्मा और देह दोनों एक हैं और जबकि शरीर मृत्यु के बाद जला दिया जाता है तो मृत्यु के बाद पुनर्जन्म नहीं हो सकता और इसलिए मृत्यु के बाद परलोक भी नहीं हो सकता। दानव प्रतिनिधि विरोचन का भी यह मानना था कि देह ही आत्मा है। 1. It seems possible, therefore, that probably the Lokāyata doctrines had their beginnings in the preceding Sumerian civilization in the then prevailing customs of adorning the dead and the doctrine of bodily survival after death. This later on became so far changed that it was argued that since the self and the body were identical and since the body was burnt after death, there could not be any survival after death and hence there could not be another world after death, S.N. Dasgupta, History of Indian Philosophy, Vol.III, p. 529.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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