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________________ जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद 6. जैनेतर परम्परा में पंचभूतवादी एवं अन्य भौतिकवादी मान्यताएँ भौतिकवादी जीवनदृष्टि की उपलब्धि / उपस्थिति के प्रमाण भारत की प्रत्येक धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तनधारा में उपलब्ध होते हैं । 86 उपनिषद् साहित्य में पंचभूत एवं इससे संबंधित मान्यताओं की विस्तार से चर्चा हुई है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में विश्व के मूल कारण की जिज्ञासा में भूतों का एक कारण के रूप में निर्देश मिलता है (श्वेताश्वतरोपनिषद्, 1.2 [ 237]), जिसमें भूत को अन्तिम (मूल) सिद्धान्त माना गया है । बृहदारण्यक उपनिषद् में एक मत में ऋषि याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी को पंचभूत सिद्धान्त का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जीवन पंचभूतों का परिणाम है और मृत्यु के बाद कुछ नहीं बचता (बृहदारण्यकोपनिषद्, 2.4.12 [238])। कठोपनिषद् में कहा गया है कि धन के मोह से मूढ़ बालबुद्धि, प्रमादी व्यक्तियों को परलोक के मार्ग में आस्था नहीं होती, वह केवल इस लोक को मानता है, परलोक को नहीं, ऐसा व्यक्ति बार-बार मेरे (अर्थात् मृत्यु के) वश में आता है ( कठोपनिषद्, 1.2.6 [ 239])। इस जन्म के बाद कोई जीवन नहीं है और मृत्यु के साथ चेतना नष्ट हो जाती है। यह सिद्धान्त 600 ई. पू. में पूर्ण रूप से स्थापित हो चुका था, क्योंकि 'कठोपनिषद् में नचिकेता कहता है कि लोगों को इस विषय पर गंभीर संदेह है कि मृत्यु के बाद जीवन है या नहीं और वे यम ( मृत्यु देवता ) से इस विषय पर निश्चयात्मक अन्तिम उत्तर जानने को इच्छुक थे (कठोपनिषद्, 1.1.20 [240])। छान्दोग्योपनिषद् में दानवों (असुर) का प्रतिनिधि विरोचन और देवताओं का प्रतिनिधि इन्द्र आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु प्रजापति के पास आते हैं । उन दोनो से प्रजापति ने कहा-तुम अच्छी तरह अलंकृत होकर, सुन्दर वस्त्र पहनकर और परिष्कृत होकर जल के शकोरे में देखो । तब उन्होंने अच्छी तरह अलंकृत हो, सुन्दर वस्त्र धारणकर और परिष्कृत होकर जल के शकोरे में देखा। उनसे प्रजापति ने पूछा, तुमने क्या देखा? वे बोले जिस प्रकार हम दोनों उत्तम प्रकार से अलंकृत, सुन्दर वस्त्र धारण किये और परिष्कृत हैं, उसी प्रकार हे भगवन् ! ये दोनों भी वैसे ही हैं। तब प्रजापति ने कहा - "यह आत्मा है और यही अमृत
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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