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________________ 72 जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद लेकर दिखलाए-यह हथेली है, यह आंवला। जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत को निकालकर दिखलाए-यह नवनीत है, यह दही। जैसे कोई पुरुष तिलों से तैल को निकालकर दिखलाए-यह तैल है, यह खली। जैसे कोई पुरुष ईख से रस को निकालकर दिखलाए-यह ईख का रस है, यह छाल। पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जो आत्मा को शरीर से निकालकर दिखलाए-यह आत्मा है, यह शरीर है, और जैसे कोई पुरुष अरणी से आग निकालकर दिखाएं कि यह अरणी है, यह आग। पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए-आयुष्मन्! यह आत्मा है, यह शरीर है। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता (सूत्रकृतांग, II.1.15-17 [212])। इस मत का प्रतिपादन करते हैं। इस मत को यहां तज्जीव-तच्छरीरवादी कहा गया है (सूत्रकृतांग, II.1.22 [213])। भद्रबाहु द्वितीय ने तथा शीलांक ने इस मत को तज्जीव-तच्छरीरवादी कहा है (I. सूत्रकृतांगनियुक्ति, पृ.27 II. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14 [214])। साथ ही शीलांक ने इसको स्वभाववादी' भी कहा है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14 [216])। तज्जीव-तच्छरीरवाद का अर्थ है-यह जीव है और वही शरीर है जो यह बतलाता है। शरीरमात्र ही जीव है (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14 [217])। जैन आगमों में उपर्युक्त जो विचार हैं, उसके पुरस्कर्ता तीर्थंकर का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु बौद्ध साहित्य में उसके तीर्थंकर का भी उल्लेख प्राप्त है। दीघनिकाय में उपलब्ध दार्शनिक विचारों की, उक्त विचारों से तुलना करने पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ये अजितकेशकम्बल के ही दार्शनिक विचार हैं। दीघनिकाय में अजितकेशकम्बल के दार्शनिक विचार इस प्रकार प्रतिपादित हुए हैं-यहाँ न कोई दान है, न यज्ञ है, न हवन, सुकृत और 1. स्वभाववाद का अर्थ है-जगत् की विचित्रता में पुण्य-पाप की कोई भूमिका नहीं होती, किन्तु स्वभाव से ही जगत् में विचित्रता दिखाई देती है। जैसे किसी पत्थर से देवमूर्ति बनाई जाती है और वह मूर्ति कुंकुम, अगर, चन्दन, धूप-दीप आदि विलेपनों को भोगती है वहीं दूसरे पत्थर के टुकड़े पर पैर धोना आदि कार्य किया जाता है। इनमें दोनों पत्थरों के टुकड़ों का पुण्य-पाप नहीं जुड़ा है, जिससे उक्त कार्य हो रहै हैं, अपितु स्वभाव से जगत् में ऐसी विचित्रताएं घटित होती हैं-कांटे का तीखापन, मयूर और मूर्गे के रंगों की विचित्रता सब स्वभाव के कारण से हैं (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14 [215])।
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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