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________________ पञ्चभूतवाद ____73 दुष्कृत कर्मों का फल-विपाक भी नहीं है। न यह लोक है और न परलोक। न माता है और न पिता। औपपातिक सत्व (देव) भी नहीं है। लोक में सत्य तक पहुँचे हुए तथा सम्यक् प्रतिपन्न श्रमण-ब्राह्मण नहीं है, जो इस लोक और परलोक को स्वयं जानकर, साक्षात कर बतला सके। प्राणी चार महाभूतों से बना है। जब वह मरता है, तब (शरीरगत) पृथ्वी तत्त्व पृथ्वीकाय में, पानी तत्त्व अप्काय में, अग्नि तत्त्व तैजसकाय में और वायु तत्त्व वायुकाय में मिल जाते हैं। इन्द्रियां आकाश में लीन हो जाती हैं। चार पुरुष मृत व्यक्ति को खाट पर ले जाते हैं। जलाने तक उसके चिह्न जान पड़ते हैं। दाहक्रिया तक उसकी निन्दा प्रशंसा सीमित है। फिर हड्डियां कपोत वर्ण वाली हो जाती हैं। आहुतियां राख मात्र रह जाती हैं। ‘दान करो' यह मूरों का उपदेश है। जो आस्तिकवाद का कथन करते हैं, वह उनका कहना तुच्छ और झूठा विलाप है। मूर्ख हो या पंडित, शरीर का नाश होने पर सब विनष्ट हो जाते हैं। मरने के बाद कुछ नहीं रहता (तुलना, दीघनिकाय-सीलक्खन्धवग्गपालि, 1.2.171, पृ. 49 [218])। दलसुख मालवणिया ने पंचभूत सिद्धान्त की तुलना अजितकेशकम्बल के मन्तव्य से की है।' जैसा कि दीघनिकाय में उल्लेख आता है कि पुरुष (आत्मा) चार महाभूतों से उत्पन्न है। पांचवां आकाश नामक भूत भी उन्हें स्वीकार्य है, और बाल और पण्डित शरीर के विनाश के साथ ही विनष्ट हो जाते हैं। तीसरे गणधर वायुभूति को भी जीव और शरीर एक ही है अथवा भिन्न-भिन्न, इस विषय पर शंका थी। पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इन चार भूतों से चेतना उत्पन्न होती है, ऐसा उनका मानना था। उदाहरणार्थ जिस प्रकार मद्य के प्रत्येक पृथक्-पृथक् अंग जैसे कि धातकी के फूल, गुड़, पानी इनमें किसी में भी मद-शक्ति दिखाई नहीं देती, फिर भी जब इन सबका समुदाय बन जाता है तब उनमें से मद-शक्ति की उत्पत्ति साक्षात् दिखाई देती है, उसी प्रकार यद्यपि पृथ्वी आदि किसी भी भूत में चैतन्य शक्ति दिखाई नहीं देती, तथापि जब उनका समुदाय होता है, तब चैतन्य का प्रादुर्भाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो जाता है। यदि शरीर ही जीव हो और जीव शरीर से भिन्न न हो तो फिर व्यक्ति स्वर्ग कैसे जायेगा। कारण यह है कि शरीर यहीं जलकर राख हो जाता आदि अनेक वेद वाक्यों से यह सिद्ध किया जाता है कि जीव शरीर से भिन्न है 1. दलसुख मालवणिया, जैनदर्शन का आदिकाल, पृ. 26.
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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