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________________ पञ्चभूतवाद 71 परलोक में नहीं जातीं, न ही उनका पुनर्जन्म होता है। न पुण्य है, न पाप है और इस लोक से परे कोई दूसरा लोक भी नहीं है। शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जाता है (सूत्रकृतांग, I.1.11-12 [211])। सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध में इस प्रकार के आत्मवाद का विस्तार से वर्णन मिलता है। वहां जीव और शरीर का सम्बन्ध कुछ इस प्रकार बताया गया है-पैर के तलवे से ऊपर, सिर के केशाग्र से नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है-शरीर ही जीव है। यही पूर्ण आत्म-पर्याय है। यह जीता है तब तक प्राणी जीता है, यह मरता है तब प्राणी मर जाता है। शरीर रहता है तब तक जीव रहता है। उसके विनष्ट होने पर जीव नहीं रहता। शरीर पर्यन्त ही जीवन होता है। जब तक शरीर होता है तब तक जीवन होता है। शरीर के विकृत हो जाने पर दूसरे उसे जलाने के लिए ले जाते हैं। आग में जला देने पर हड्डियां कबूतर के रंग की हो जाती है। आसंदी (अरथी) को पांचवी बना, उसे उठाने वाले चारों पुरुष गांव में लौट आते हैं। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है तथा शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता। शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है इस बात को वे आगे अनेक दृष्टान्तों से समझाते हैं-जिनके मत में यह सु-आख्यात है-जीव अन्य है और शरीर अन्य है। वह इसलिए सु-आख्यात नहीं है कि वे इस प्रकार नहीं जानते कि यह.आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व, वलयाकार है या गोल, त्रिकोण है या चतुष्कोण, लम्बा है या षट्कोण, कृष्ण है या नील, लाल है या पीला या शुक्ल, सुगंधित है या दुर्गधित, तिखा है या कडुआ, कषैला है या खट्टा या मधुर, कर्कश है या कोमल, भारी है या हल्का, शीत है या उष्ण, चिकना है या रूखा (आत्मा का किसी भी रूप में ग्रहण नहीं होता)। इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं होता। ___जिनके मत में यह सुआख्यात है-जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह इसलिए सुआख्यात नहीं है कि उन्हें वह इस प्रकार उपलब्ध नहीं होता-जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार को निकाल कर दिखलाए-आयुष्मन्! यह तलवार है, यह म्यान। जैसे कोई पुरुष मूंज से शलाका को निकाल कर दिखलाए-यह मूंज है, यह शलाका। जैसे कोई पुरुष मांस से हड्डी को निकाल कर दिखलाए-यह मांस है, यह हड्डी। जैसे कोई पुरुष हथेली में लेकर आंवले को
SR No.032428
Book TitleJain Agam Granthome Panchmatvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandana Mehta
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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