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________________ कल्पना की उड़ान प्रबुद्धाचार्यों में अधिक है, और इस श्रेणी के सभी आचार्य प्रायः कवि हैं। इनका गद्य और पद्य भी अलंकृत-शैली का है। अतः अभिव्यंजना की सशक्त काव्यशक्ति के रहने पर भी सिद्धान्त-निरूपण की वह क्षमता नहीं है, जो क्षमता सारस्वताचार्य या श्रुतधराचार्यों में पायी जाती है। इस श्रेणी के आचार्यो में आ. जिनसेन प्रथम, प्रभाचन्द्र, नरेन्द्रसेन, भावसेन, आर्यनन्दि, नेमिचन्द्रगणि, पद्मनन्दि, वादीभसिंह, हरिषेण, वादिराज, पद्मनन्दि-जंबूद्वीवपण्णत्तीकार, महासेन, सोमदेव, हस्तिमल्ल, रामसिंह, नयनन्दि, माधवचन्द्रत्रैविद्य, विश्वसेन, जयसेनाचार्य द्वितीय, अनन्तवीर्य एवं इन्द्रनन्दि आदि की गणना की जा सकती है। इन आचार्यों ने पदयात्रा द्वारा भारत का भ्रमण किया और प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत आदि भाषाओं में ग्रन्थ-रचना की। __ स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखने की क्षमता भी प्रबुद्धाचार्यों में थी। श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्यों ने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी, उसी को प्रकारान्तर से उपस्थित करने का कार्य प्रबुद्धाचार्यों ने किया है। यह सत्य है कि इन आचार्यों ने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परा से प्राप्त तथ्यों को नवीन रूप में भी प्रस्तुत किया है। अतः विषय के प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से इन आचार्यों का अपना महत्त्व है। प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्यों की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपण की सूक्ष्म-क्षमता प्रबुद्धाचार्यों में वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। ___ प्रमुख एवं प्रभावक प्रबद्धाचार्यों का विवरण यहाँ दिया जा रहा हैआचार्य जिनसेन (प्रथम) आचार्य जिनसेन प्रथम ऐसे प्रबुद्धाचार्य हैं, जिनकी वर्णन-क्षमता और काव्य-प्रतिभा अपूर्व है। इन्होंने 'हरिवंशपुराण' नामक कृति का प्रणयन किया है। ये पुन्नाटसंघ के आचार्य हैं। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण था। 'हरिवंशपुराण' के 66वें सर्ग में भगवान् महावीर से लेकर लोहाचार्य-पर्यन्त आचार्यों की परम्परा अंकित है। 'पुन्नाट' कर्नाटक का प्राचीन नाम है। 'हरिषेण-कथाकोष' में आया है कि भद्रबाहु स्वामी के आदेशानुसार उनका संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथ के पुन्नाट देश में गया। अतः इस देश के मुनिसंघ का नाम पुन्नाटसंघ पड़ गया। जिनसेन से 50-60 वर्ष पूर्व ही यह संघ उत्तर भारत में प्रविष्ट हुआ होगा। जिसप्रकार पंचस्तूपान्वयी वीरसेन स्वामी का 'वाटनगर' में ज्ञानकेन्द्र था, सम्भवतः उसी प्रकार अमितसेन ने 'बदनावर' में ज्ञानकेन्द्र की स्थापना की हो और उसी केन्द्र में उक्त दोनों ग्रन्थों की रचना सम्पन्न हुई हो। आचार्य जिनसेन प्रथम का समय लगभग ईस्वी सन् 748-818 सिद्ध होता है। भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 0059
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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