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________________ तपस्या करते हुए निर्वाण प्राप्त किया। 23 पार्श्वनाथ के समय का समाज अहिंसाप्रिय समाज था, किन्तु पंचाग्नि तप करने वाले साधुओं का बोलबाला था । अंधविश्वास फैला हुआ था। पार्श्वनाथ के पूर्व होने वाले तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट धर्म को प्रायः भुला दिया गया था, किन्तु पार्श्वनाथ के केवली बनने के पश्चात् देश में पुन: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह व्रतों का पालन किया जाने लगा और समाज में अंहिसाधर्म (जैनधर्म) को अधिक मान्यता मिलने लगी थी। पार्श्वनाथ के युग की धार्मिक स्थिति के बारे में विद्वानों की मान्यता है कि वह बड़ा उथल-पुथल का समय था । वैदिकधर्म में यज्ञों की प्रधानता थी। यह ब्राह्मण-युग के अन्त और वेदान्त-युग के आरम्भ का समय था । आत्मा और ब्रह्म की जिज्ञासा पुरोहितवर्ग में बलवती थी। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री लिखते हैं, "इसी युग के आरम्भ में काशी में पार्श्वनाथ ने जन्म लेकर भोग का मार्ग छोड़कर योग का मार्ग अपनाया। उस समय वैदिक आर्य भी तप के महत्त्व को मानने लगे थे, किन्तु अपने प्रधान कर्म अग्निहोत्र को छोड़ने में वे असमर्थ थे। अतः उन्होंने तप और अग्नि को संयुक्त करके ' पंचाग्नि तप' को अंगीकार कर लिया था। "124 पार्श्वनाथ का प्रभाव नौवीं सदी ईसापूर्व अर्थात् महावीर स्वामी से 250 वर्ष पूर्व फैला। वे उच्चकोटि के धर्मशिक्षक थे तथा हिंसक कर्म-कांडों के कट्टर विरोधी थे । यज्ञों की बलि प्रथा का विरोध करते हुए हिंसा को त्यागने की शिक्षा दी। वह जाति, नस्ल और लिंगभेद के बिना हर दरवाजे पर धर्मप्रचार के लिये पहुँचे । स्त्री एवं पुरुष दोनों ही पार्श्वनाथ के संघ समानरूप से प्रवेश कर सकते थे। पार्श्वनाथ जैनधर्म के अनुयायियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया। इन चार श्रेणियों के आचार-विचार को एक निश्चितरूप प्रदान किया। इनके द्वारा निर्धारित श्रेणियां इस प्रकार थीं (1) यति अर्थात् साधु अथवा मुनि, (2) आर्यिका अथवा साध्वी, (3) श्रावक, (4) श्राविका । इस वर्गीकरण के द्वारा जैन समुदाय को प्राचीनकाल से सुसंगठित कर दिया गया, जिसके माध्यम से जैन- - समुदाय संगठितरूप से चलता रहा। परवर्तीकाल में बौद्धधर्म की तुलना में जैनधर्म के भारत में जीवित रहने का यह एक प्रमुख कारण रहा है। 25 अतः पार्श्वनाथ को जैनधर्म व समाज का प्रबल प्रचारक माना जाता है | 26 - तीर्थंकर महावीर स्वामी वैसे तो पार्श्वनाथ ने जैनधर्म को एक सुव्यवस्थित और सुनिश्चित रूप प्रदान कर दिया था; किन्तु महावीर स्वामी ने जैनधर्म का भारी विस्तार किया। महावीर स्वामी ने कई दार्शनिक विचार जैनधर्म में लागू किये। अतः इनको जैन- परम्परा में 24वें तीर्थंकर का स्थान प्राप्त है। ऐसा माना जाता है कि पार्श्वनाथ ने सत्य, अस्तेय व अपरिग्रह के सिद्धांत (चातुर्याम) का ही प्रतिपादन किया था । महावीर अहिंसा, 0010 भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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