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________________ ज्योंही जलती हुई लकड़ी को चीरा, तो उसमें से नाग और नागिन का जलता हुआ जोड़ा निकला। उन्होंने उस मरणासन्न सर्प-युगल को उपदेश देकर उसका उद्धार किया और हिंसायुक्त तप के स्थान पर संयम, विवेकयुक्त सात्त्विक तप करने का उपदेश दिया। उन्हें इस घटना से बड़ा कष्ट हुआ। कुछ समय पश्चात् उन्होंने राजपाट को तिलांजली देकर मुनिदीक्षा धारण कर ली। उस समय से वे आत्मध्यान में लीन हो गये तथा सत्य का मार्ग दिखाने में सफल रहे।18 पार्श्वनाथ ने कहा कि "जिस तप से आन्तरिक कुप्रवृत्तियों का शमन हो, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के नीचे दबी हुई समत्व की भावना हृदय में जागृत हो, ऐसा तप ही सर्वोत्तम है।"19 पार्श्वनाथ का राजस्थान से विशेष सम्बन्ध रहा हुआ माना जाता है। आचार्य गुणभद्र द्वारा लिखित 'उत्तर-पुराण' में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। 'उत्तर-पुराण' में पार्श्वनाथ के सन्दर्भ में उल्लिखित भौगोलिक व जनजातीय उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि इनकी तपोभूमि लम्बे समय तक राजस्थान रहीं।20 अजमेर के आसपास का क्षेत्र अहिच्छत्रपुर के नाम से जाना जाता था। पार्श्वनाथ के प्रसंग में 'अहिच्छत्र' के वन में ध्यानमग्न होते समय उनके पूर्वजन्म के बैरी कमठ द्वारा उनके ऊपर किये उपसर्ग का उल्लेख मिलता है। इस सन्दर्भ में उल्लेख मिलता है कि मुनि बनने के पश्चात् जब वे अहिच्छत्र के वन में ध्यानस्थ थे, तब उनके पूर्वजन्म के बैरी संवरदेव (कमठ) ने घोर उपसर्ग किया। वह उनके ऊपर ईंट और पत्थरों की बरसात करने लगा। जब उससे भी उसने पार्श्वनाथ के ध्यान में विघ्न पड़ता न देखा, तो वह मूसलाधार वर्षा करने लगा। आकाश में मेघों ने भयानक रूप धारण कर लिया, उनके गर्जन से दिल दहलने लगा। पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी उमड़ पड़ा। ऐसे घोर उपसर्ग में जो नाग और नागिन मरकर 'धरणेन्द्र' व 'पद्मावती' हुये, वे अपने उपकारी (पार्श्वनाथ) के ऊपर उपसर्ग हुआ जानकर तुरंत आये। धरणेन्द्र ने सहस्र फणवाले सर्प का रूप धारण करके भगवान् के ऊपर अपना फन फैला दिया और इस तरह उपसर्ग से उनकी रक्षा की। उसी समय इन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।21 पार्श्वनाथ को महिमा-मण्डित करने के ध्येय से जैनधर्मानुरागियों ने अनेक घटनाक्रम प्रस्तुत किये। इससे इनकी ऐतिहासिकता भी सिद्ध होती है। पार्श्वनाथ की जो मूर्तियां पाई जाती हैं, उनके सिर पर सर्प फणावली बनी हुई होती है। यह उसी तपस्या के घटनाक्रम को चित्रित करता है। जिसमें उनकी रक्षा धरणेन्द्र ने सर्प बनकर की थी। विभिन्न ऐतिहासिक तथ्य भी इस ओर इंगित करते हैं कि केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् वे राजस्थान के 'बिजोलिया' नामक गांव में आये और अपने चरण-कमलों से इसे पवित्र किया।2 कैवल्य होने के पश्चात् राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों में विहार करते हुये सौ वर्ष की आयु में पार्श्वनाथ ने 'सम्मेदशिखर' पर भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ 009
SR No.032426
Book TitleBhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrilokchandra Kothari, Sudip Jain
PublisherTrilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
Publication Year2001
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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