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________________ २५० अलबेली आम्रपाली तांता-सा लग रहा है । पहले ऐसा नहीं था। उसने बिबिसार से पूछा- "भाई ! कहां के हो ?" "मगध का।" बिंबिसार ने कहा। "आपका नाम ?" "जयकीर्ति ।" "कौन हैं ?" "वणिक् हूं।" "वणिक !" धनदत्त के मन में सहधर्मी भाव उभरा। उसने पूछा-"किसी प्रयोजन से यहां आए हैं ?" "नहीं, केवल व्यवसाय के लिए निकला हूं। कितने ही दिनों से व्यवसाय मिल नहीं रहा है, इसलिए भटक रहा हूं। थक गया हूं, इसलिए यहां विश्राम लेने बैठा' 'यदि आपको आपत्ति न हो तो...।" "अरे ! आप ऊपर आएं' 'मेरे पास बैठे..." कहकर धनदत्त ने बिंबिसार को जबरन अपने पास गद्दी पर बैठाया। बिंबिसार को तो वहीं बैठना था। वह तरुणी की टोह में था। दुकान पर ग्राहकों की भीड़ जमने लगी। धनदत्त की श्रद्धा पुष्ट होने लगी । उसको यह निश्चय हो गया कि जयकीर्ति के चरणों का ही यह प्रभाव है। उसने मन-ही-मन सोचा, क्या ही अच्छा हो, यदि यह यहीं रह जाए। सांझ होने को थी। ग्राहकों की भीड़ बढ़ रही थी। परन्तु सेठ कभी रात्रिभोजन नहीं करता था। रात्रिभोजन को वह निन्दनीय मानता था, पाप-प्रवृत्ति मानता था। धनदत्त जयकीर्ति को साथ ले ब्याल करने अपने घर की ओर प्रस्थित हुआ। चलते-चलते धनदत्त ने कहा-“सेठ जयकीर्ति ! आप व्यवसाय खोज रहे हैं और मैं आप जैसा उत्तम साथी खोज रहा हूं। आप मेरे साथ व्यवसाय करें। मैं अभी एक विपत्ति से गुजर रहा हूं।" "विपत्ति ?" "हां, मेरा एकाकी पुत्र तीन वर्ष पूर्व जहाजों में माल लादकर परदेस गया था। उसने परदेसी माल भरकर एक जहाज यहां भेजा था। परन्तु कर्म के संयोग से वह वाहन भटक गया और अन्यत्र किसी के यहां पहुंच गया। दूसरी ओर एक दूसरा जहाज मेरे नाम से यहां आ गया। उसमें जो माल निकला वह व्यर्थ था। उसमें दस बोरे राख तथा अनेक बोरों में ऐसी वनस्पति भरी थी, जिसकी हमें कोई
SR No.032425
Book Titlealbeli amrapali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahrajmuni
PublisherLokchetna Prakashan
Publication Year1992
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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