SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 400. काल को कारण क्यों कहा गया है? उ. भाग्य, पुरुषार्थ एवं स्वभाव में काल की अपनी भूमिका है। कर्मों का बंध होने के बाद भी उनका फल एक निश्चित काल के बाद ही भोग में आता है। गुठली से वृक्ष बनने में मुख्य रूप से काल ही निमित्त बनता है। अव्यवहार राशिगत जीवों का व्यवहार राशि में आने में काल ही प्रमुख हेतु है। कृष्णपक्षी जीव के शुक्लपक्ष में आने में भी काल का परिपाक मुख्य है। किसी पुरुषार्थ, कर्म या स्वभाव से यह संभव नहीं है। प्रत्येक वस्तु को उत्पन्न करने वाला, स्थिर रखने वाला, संहार करने वाला तथा संयोग में वियोग एवं वियोग में संयोग कराने वाला काल ही तो है। इसीलिए काल को भी कारण के रूप में स्वीकार किया गया है। 401. स्वभाव को कारण क्यों माना गया है? उ. प्रत्येक वस्तु का अपना स्वभाव होता है। आम की गुठली में अंकुरित होकर वृक्ष बनने का स्वभाव है अत: माली का पुरुषार्थ काम आता है। भाग्य फल देता है और काल के बल से अंकुर बनते हैं। पर बबूल का वृक्ष कभी आम उत्पन्न नहीं कर सकता। 402. कर्म को कारण क्यों माना गया है? उ. दनिया में जो विचित्रता दृष्टिगोचर हो रही है उसका एक मुख्य कारण कर्म भी है। एक ही मां के दो बच्चे जिसमें एक कुरूप है एक सुन्दर है, एक बुद्धिमान है एक मूर्ख, एक बलिष्ठ है एक कमजोर, ऐसा क्यों? काल, पुरुषार्थ, स्वभाव, परिस्थिति आदि समान होने पर भी तथा एक ही मां-बाप के रज-वीर्य से उत्पन्न होने एवं एक जैसा लालन-पालन व वातावरण मिलने के बाद भी ये अन्तर क्यों? इसका एक ही उत्तर हो सकता है अपना-अपना कर्म। जिसके अच्छे कर्म हैं उसका शुभ के साथ संयोग है। जिसका कर्म बुरा है उसका अशुभ के साथ संयोग है। कर्म का हमारी आत्मा के साथ सर्वाधिक घनिष्ठ संबंध है। वातावरण, परिस्थिति आदि कर्म को प्रभावित कर सकते हैं सीधे आत्मा को नहीं। अत: कर्म को कारण माना गया है। 403. पुरुषार्थ को कारण क्यों माना गया है? उ. संसार में भटकाने का काम है कर्म का, पर मुक्त करना कर्म का काम नहीं है। मुक्ति की प्राप्ति में सम्यक् पुरुषार्थ की सत्ता चलती है। पूर्व के अच्छे कर्म भी वर्तमान में बिना पुरुषार्थ अपना यथोचित परिणाम नहीं देते। 1 कर्म-दर्शन 91
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy