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________________ 281. भाव बंध किसे कहते हैं? उ. मोह आदि भावों से जो कर्म का बंध होता है, उसे भाव बंध कहते हैं। भावबंध भी दो प्रकार का है—भाव का भाव के साथ और भाव का द्रव्य के साथ। आत्मा के क्रोधादि भाव को देखकर भय आदि का होना भाव का भाव के साथ बंध है। दृश्यमान पदार्थों को देखकर उनके प्रति हर्ष-शोक आदि का होना भाव का द्रव्य के साथ बंध है। 282. जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्म पुद्गलों की संख्या कितनी होती है? उ. जीव संख्यात, असंख्यात परमाणुओं से बने कर्म वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण नहीं करता है। वह अनन्त परमाणुओं वाले कर्म वर्गणा के स्कंधों को ही कर्म रूप में ग्रहण करता है। 283. कर्म कौन बांधता है? उ. कर्ममुक्त आत्मा के कर्म का बंध नहीं होता है। पूर्व में कर्मबद्ध आत्मा ही नये कर्मों को बांधती है। जीव के साथ कर्म का प्रवाह रूप में अनादि संबंध चला आ रहा है। 284. कर्मबंध के हेतु क्या हैं? उ. कर्म सम्बन्ध के अनुकूल आत्मा की परिणति (योग्यता) ही कर्म बंध का हेतु है। मोह कर्म के उदय से जीव राग-द्वेष में परिणत होता है तब अशुभ कर्म का बंध होता है। मोहकर्म रहित प्रवृत्ति करते समय शरीर नामकर्म के उदय से जीव शुभ प्रवृत्ति करता है तब शुभ कर्म का बंध करता है। 285. कर्म के कर्म लगता है या आत्मा के कर्म लगता है? उ. कर्म के कर्म लगता है आत्मा के नहीं। क्योंकि संसारी आत्मा कर्म विमुक्त नहीं है, अत: हर कर्म वर्गणा से आत्मा प्रभावित होती है। इसलिए आत्मा के कर्म लगे, ऐसा व्यवहार में कहा जाता है। 286. क्या शुभ एवं अशुभ कर्म एक साथ बंधते हैं? उ. कर्म बंध के दो हेतु हैं—योग एवं कषाय। योग (मन, वचन, काया का व्यापार) शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार का होता है। जिस समय योग शुभ होते हैं उस समय योग से शुभ प्रकृतियों का बंध होता है एवं साथ ही दसवें गुणस्थान तक कषाय का उदय रहने के कारण पाप प्रकृतियों का भी साथ में बंध होता है। अशुभ योग होता है तब योग एवं कषाय से एकान्त पाप कर्म का बंध होता है। पहले से छठे गुणस्थान तक योग (स्थूल योग) शुभ-अशुभ दोनों में से कोई एक हो सकता है। सातवें से आगे (स्थूल कर्म-दर्शन 65
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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