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________________ मणिभद्र का प्रभाव इतना फैला, लोग स्वयं सत्यधर्म को भूल गये। केवल चमत्कारों में फंस गये। सिद्धांत को भूल गये। साधना गौण हो गयी। निर्ग्रन्थ धर्म में ही नहीं, सभी धर्म सम्प्रदायों में दरारें पड़ गयी। मणिभद्र का एक ही चिन्तन था—मेरा दबदबा रहे, केवल मेरा ही प्रभाव रहे। अनेकों बार मान्य सिद्धान्तों का भी खण्डन कर देते थे, जिससे धर्म की मौलिक आस्था में बहुत कमी आई। उनके दर्शन-मोहनीय की प्रकृति का कठोर बंधन हो गया। मणिभद्र वहाँ से मरकर व्यन्तर देव बना। देवायुष्य भोग कर वह तिर्यञ्चगति में खूब भटका, इस बीच वह अनेकों बार नरक में भी चला गया। पैंतीस करोड़ाकरोड़ सागरोपम तक वह इसी प्रकार भव-भ्रमण करता रहा। इतने लम्बे समय के बाद उसका जीव मथुरा नगरी का राजकुमार बना। उसका नाम दिया गया–वीर्यध्वज। उसके पिता का नाम था--सूर्यध्वज। राजकुमार युवा बना। कला में दक्ष और विद्या के क्षेत्र में पारगामी बना। एक बार सर्वज्ञ आचार्य समाधिगुप्त मथुरा नगरी में पधारे। राजा अपने युवा राजकुमार के साथ दर्शनार्थ गया। वीर्यध्वज पहली बार निर्ग्रन्थ प्रवचन में आया था। इसलिए उसे निर्ग्रन्थ परम्परा के प्रति कुतूहल होना स्वाभाविक था। सर्वज्ञ आचार्य के प्रवचन का विषय था—सम्यक्श्रद्धा। उन्होंने कहासम्यक्त्व से गिर जाने से व्यक्ति को भव भ्रमण करना ही पड़ता है। राजा ने पूछा-भंते! यहाँ पर कोई पड़वाई सम्यक्दृष्टि (सम्यक्त्व से गिरने वाला) है क्या? आचार्य-ऐसे तो हम में से अनेकों ऐसे हैं, जो प्रतिपातिक सम्यकदृष्टि हो चुके हैं। पर यह तुम्हारा राजकुमार वीर्यध्वज है जो पैंतीस करोड़ाकरोड़ सागर के बाद आज पहली बार निर्ग्रन्थ प्रवचन में आया है। इतने समय तक यह धर्म से, साधुओं से विपरीत बना रहा। एक बार तो संतों की पिटाई करने से इसे नरक की भी हवा खानी पड़ी। मणिभद्र मुनि के जीवन का इतिवृत्त सुनाते हुए सर्वज्ञ देव ने कहा-क्रोध एवं अहंकार के वशीभूत होकर, अनास्था के जाल में फंसकर व्यक्ति कर्मों का बंधन तो कर लेता है, पर भुगतने के लिए असंख्य और अनन्त-अनन्त भवों (जन्मों) में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण है—यह राजकुमार वीर्यध्वज। 266 कर्म-दर्शन 00
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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