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________________ संन्यासियों से ही मिलते हैं, गृहस्थों से नहीं। उन्हें ब्रह्मज्ञान प्राप्त है, आप उनके पास जाकर अपनी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं। दूसरे ही दिन विज्जूनाथजी बिजोली पहाड़ की गणपति गुफा में पहुंचे। मंगुनाथ स्वामी को उन्होंने साष्टांग दण्डवत् किया। उनकी आंखों से अश्रृंधारा बह चली। मंगुनाथ स्वामी ने माला सहित हाथ ऊंचा किया और संबोधित करते हुए कहाविज्जूनाथ! दुःख मत कर। कर्मों को भोगना अनिवार्य है। गद्गद् स्वर में विज्जूनाथ ने पूछा-ब्रह्मर्षे! मैंने ऐसे क्या कर्म किये, जिससे मैं जानता हुआ भी अनजान बन गया? माला को गले में डालते हुए बाबा ने कहा-विज्जूनाथ! पूर्व जन्म में भी तूं किंजल्प आश्रम में सर्वाधिक अवस्था प्राप्त संन्यासी विश्वनाथ नाम से प्रसिद्ध था। जब आश्रम के कुलपति ब्रह्मलीन हो गये तब कुलपति जैसे महिमामण्डित पद के लिए वहाँ खिंचाव शुरू हो गया था। कुलपति पद के लिए मुख्य रूप से दो प्रतिद्वन्द्वी थे—प्रणवनाथ और अभयनाथ स्वामी। दोनों का आश्रम में समान प्रभाव था। आश्रम के सभी संन्यासियों ने यह तय किया—दोनों में जो विशिष्ट ज्ञानी हो उसे कुलपति बनाया जाए। इसका अन्तिम निर्णय विश्वनाथ बाबा पर छोड़ दिया। बाबा के निर्णय को आखिरी निर्णय मानने के लिए दोनों पक्ष राजी हो गए। बाबा ने कुछ प्रश्न बनाए। दोनों को अलग-अलग बुलाकर प्रश्न पूछे। निर्णय देते वक्त बाबा ने पक्षपात कर लिया। विशिष्ट ज्ञानी प्रणवनाथ का नाम न लेकर अभयनाथ का नाम घोषित कर दिया, जिससे प्रणवनाथ इस पद से वंचित रह गया। पक्षपातपूर्ण निर्णय देने से तथा ज्ञानी को कम ज्ञानी कहने से कर्मों का बंधन हुआ, उनके फलस्वरूप तूं जानता हुआ अनजान बन गया। ज्ञानावरोधक कर्मबंध के साथ अन्य कर्मों का बंधन हो गया, जिससे तुझे प्रभावहीन होकर कुलपति का पद भी छोड़ना पड़ा। -कर्मलोकः अवसर पर विस्मृति 246 कर्म-दर्शन
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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