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________________ बनारस में एक बटुक बना। मुनि वहां भिक्षा के लिए घूम रहे थे। बच्चों के साथ बटुक भी मुनि को मारने लगा। मुनि ने रुष्ट होकर उस बटुक को जला डाला। वह बटुक मरकर वहीं का राजा बन गया। वह अपने पूर्वजन्म की स्मृति करने लगा । उसने अपने पूर्वभव के अशुभ जन्मों को देखा और सोचा यदि मैं अभी मारा जाऊंगा तो सबके द्वारा तिरस्कृत होऊंगा । इसलिए उसने अपने ज्ञान से एक समस्या प्रस्तुत करते हुए कहा-'जो इस समस्या की पूर्ति करेगा, उसे मैं आधा राज्य दूंगा।' वह समस्या थी— 'गंगा नदी पर नाविक नंद, सभा में छिपकली, मृतगंगा के तट पर हंस, अंजनकपर्वत पर सिंह, बनारस में बटुक और वहीं राजा ।' लोगों ने समस्या सुनी। एक बार मुनि बनारस आये और उद्यान में ठहरे। उद्यानपालक भी यही समस्या बार-बार उच्चरित कर रहा था। मुनि के पूछने पर उसने सारी बात बता दी। मुनि बोला- 'मैं इस समस्या की पूर्ति कर दूंगा।' मुनि ने कहा- 'जो इन सबका घातक है वह यहीं आया हुआ है।' वह राजा के समक्ष गया और यही बात कही। बात को सुनकर राजा मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। राजा के आरक्षक आरामिक को पकड़ कर मारने लगे। उसने कहा - ' - ' जिसने इसकी पूर्ति की है, उसे मारो, मैं इस संदर्भ में कुछ नहीं जानता। एक मुनि ने मुझे यह पूर्ति दी है। राजा की मूर्च्छा टूटी।' राजा ने पूछा—यह पूर्ति किसने की ?' आरामिक बोला- 'एक श्रमण ने।' राजा ने श्रमण के पास अपने आदमियों को भेजा और पूछा – आपकी अनुमति हो तो मैं आपको वंदना करने आऊं ? मुनि ने अनुमति दी। राजा आया और अतीत की आलोचना कर श्रावक बना। मुनि पूर्वाचरित पापों का प्रायश्चित्त कर सिद्ध हो गए। (4) बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान की राजीमती के साथ लगातार नौ जन्मों तक स्नेह - राग की परम्परा चली। प्रथम जन्म से ही दोनों का पति-पत्नी के रूप में तीव्र स्नेह-राग का सम्बन्ध जुड़ा हुआ था। तीव्र रागबंध के कारण सभी जन्मों में वे पतिपत्नी ही बनते रहे। इतना नहीं देवलोक में भी देव - देवी के रूप में साथ उत्पन्न हुए और वियोग भी दोनों का साथ - साथ हुआ। इस प्रकार बढ़ते हुए स्नेह राग के कारण वे नौवें जन्म में भी विवाह-संबंध से जुड़ने वाले थे। दोनों की सगाई हो चुकी थी । परन्तु विवाह होने से पूर्व नेमिनाथ प्रभु राग का बंधन तोड़कर विरक्त बन गए और वीतराग मार्ग पर आरूढ़ हो गये। अकस्मात् राग- बंधन टूटने से राजीमती आर्तध्यान करने लगी किन्तु कुछ देर बाद सम्यक् ज्ञान का प्रादुर्भाव होने से वह भी विरक्त होकर साधना करती हुई कर्मों से मुक्त हो गई। यही थी नौ जन्मों के स्नेह राग की भव परम्परा । कर्म-दर्शन 235
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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