SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (5) लज्जा दान - लज्जावश देना। (6) गौरव दान - गर्वपूर्वक देना। (7) अधर्म दान - हिंसा आदि पापों में आसक्त व्यक्तियों को देना। (8) धर्म दान - संयमी को देना। (9) करिष्यति दान - अमुक आगे सहयोग करेगा, इसलिए दान देना। (10) कृतमिति दान - अमुक ने सहयोग किया था, इसलिए उसे देना। 1068. दस दान में लौकिक व लोकोत्तर कितने? उ. धर्मदान लोकोत्तर व शेष नौ दान लौकिक हैं। 1069. दान-अन्तराय कर्म किसे कहते हैं? उ. जिस कर्म का उदय दान देने में विघ्नकारी होता है, जो कर्म दान नहीं देने देता एवं दान की भावना भी पैदा नहीं होने देता वह दानान्तराय कर्म है। मनुष्य सुपात्र दान देने में पुण्य जानता है, प्रासुक-एषणीय वस्तु भी पास में होती है, सुपात्र/संयमी-साधु भी उपस्थित है। इस प्रकार के सारे संयोग होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव दान नहीं दे पाता, वह दान अन्तराय कर्म है। 1070. लाभ-अन्तराय कर्म किसे कहते हैं? उ. लाभ-अन्तराय कर्म वस्तुओं की प्राप्ति में बाधक होता है। जिस कर्म के उदय से जीव के शब्द, गन्ध, रस, स्पर्श आदि के लाभ एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप आदि के लाभ में विघ्न उपस्थित होता है, वह लाभ-अन्तराय कर्म है। भगवान ऋषभदेव को तेरह मास, दस दिन तक प्रासुक-एषणीय आहार नहीं मिला और द्वारिका जैसी नगरी में 6 मास तक घूमते रहने पर भी ढंढ़ण मुनि' को भिक्षा नहीं मिली। यह लाभ-अन्तराय कर्म का उदय था। 1071. भोग-अन्तराय कर्म किसे कहते हैं? उ.. भोग-अन्तराय कर्म-जो वस्तु एक बार ही भोगी जा सके उसे भोग कहते है। जैसे खाद्य-पेय आदि। जो कर्म भोग्य वस्तुओं के होने पर भी उन्हें भोगने नहीं देता उसे भोगान्तराय कर्म कहते हैं। शरीर में व्याधि होने पर सरस भोजन नहीं खाया जा सकता यह भोगान्तराय कर्म का उदय है। 1. कथा संख्या 39 226 कर्म-दर्शन aminaam
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy