SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाव-निद्रा मिथ्यात्व, अविरति और अशुभ योग रूप है अत: मोह कर्म का उदय निष्पन्न भाव है। 588. दर्शनावरणीय कर्म की स्थिति कितनी है? उ. जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीस करोड़ाकरोड़ सागर। 589. दर्शनावरणीय कर्म का अबाधाकाल कितना है? ___उ. जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष। 590. दर्शनावरणीय कर्म के लक्षण एवं कार्य क्या हैं? उ. दर्शनावरणीय कर्म प्रहरी के समान है। जिस प्रकार प्रहरी की अनुमति के बिना किसी बड़े आदमी से मिलना संभव नहीं है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के उदय से देखने (सामान्य बोध करने) में अवरोध उपस्थित होता है। 591. दर्शनावरणीय कर्म भोगने के कितने हेतु हैं? उ. दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव द्रष्टव्य विषय को नहीं देखता, देखने का इच्छुक होने पर भी नहीं देखता। देखकर भी देख नहीं पाता। इस कर्म के उदय से जीव आच्छादित दर्शन वाला होता है। इस कर्म को भोगने के नौ हेतु हैं1. निद्रा 2. निद्रानिद्रा 3. प्रचला 4. प्रचलाप्रचला 5. स्त्यानर्द्धि 6. चक्षुदर्शनावरण-आंख से अच्छी तरह चाहते हुए भी न देख सके। 7. अचक्षुदर्शनावरण-आंख के अतिरिक्त चारों इन्द्रियों एवं मन से अच्छी तरह न देख सके। 8. अवधिदर्शनावरण-अवधिदर्शन की प्राप्ति न हो। 9. केवलदर्शनावरण-केवलदर्शन की प्राप्ति न हो। 592. दर्शनावरणीय कर्म का बंध कौन-कौनसे गुणस्थान में होता है? उ. पहले से दसवें गुणस्थान तक। 1. कथा सं. 19 130 कर्म-दर्शन
SR No.032424
Book TitleKarm Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchan Kumari
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy