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________________ है....... जब सार्थ लेकर जाते हैं तब घर लौटने में दो-चार वर्ष लग जाते हैं। आपका पुत्र भी इसी सामुद्रिक व्यापार का खिलाड़ी है, यह भी मुझे ज्ञात है." परंतु इस प्रकार के व्यापार में चारित्र की विशुद्धि प्रायः रहती नहीं..."दासदासियों के साथ दीर्घ समय तक रहना होता है.."जबकि सामुद्रिक व्यापारी की पत्नी को पति होते हुए भी वैधव्य का संन्यास भोगना होता है, रो-रो कर उसे दिन बिताने पड़ते हैं। पत्र लिखना, मेघ की भांति पति की प्रतीक्षा करना, विरहवेदना से कृश होना यह सब सार्थवाह की पत्नियों के भाग्य में लिखा होता है। मेरे एक ही कन्या है। यदि मैं ऐसे घर में कन्या को ब्याहूं तो वह बेचारी यौवनकाल में केवल वेदना का ही उपयोग कर पाएगी...... इसलिए मैं आपकी मांग को स्वीकार करने में असमर्थ हूं।' धनदेव जिस आशा के साथ आया था, वह सारी आशा टूट गई। वह कुछ भी उत्तर न देकर उठा। नगरसेठ ने कहा-'धनदेव सेठ! मेरे सत्यकथन को आप अन्यथा न लें..... बेटी के पिता को अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार के विचार सुनने-समझने पड़ते हैं..... अनेक बार कड़वे यूंट पीने पड़ते हैं। परन्तु कन्या के पिता को कन्या के जीवन को ध्यान में रखकर चारों दिशाओं से विचार करना होता है..... इसी एक कारण से मैंने आपकी मांग को अस्वीकार किया है ।' . _ 'आपका कथन उचित है...... धनदेव ने मन ही मन सोचा कि नगरसेठ को कह दूं कि पद्म सामुद्रिक व्यापार से विरत होकर अन्य व्यापार में लग जायेगा। परन्तु ऐसा कहना स्वयं की न्यूनता जाहिर करना होगा। यह सोचकर धनदेव शान्तभाव से, बिना कुछ कहे, जय-जिनेन्द्र कह चले गए।' ___ सारसिका अवाक् रह गई। वह दौड़ती हुई तरंगलोला के कक्ष में पहुंची। तरंगलोला खंड में नहीं थी। वह माता के पास ही बैठी थी। उसने सोचा था कि धनदेव सेठ आए हैं तो पिताजी माता को बुलाने किसी को भेजेंगे। कुछ क्षणों बाद सारसिका माता के खंड में आई और तरंगलोला की ओर दृष्टिपात करती हुई बोली-'चल तरंग! हम दोनों उस चित्र के विषय में विचारविमर्श करें।' - तरंगलोला समझ गई कि सारसिका कुछ समझकर आई है। वह खड़ी हुई, मां को नमन कर सारसिका के साथ अपने खंड में आ गई। खंड में पहुंचकर सारसिका बोली-गजब हो गया!' 'क्या? क्या धनदेव सेठ किसी दूसरे प्रयोजन से ही आए थे?' 'नहीं। वे पद्मदेव के लिए तुम्हारी मांग लेकर ही आए थे, परन्तु नगरसेठ ने अस्वीकार कर दिया।' 'क्यों? किसलिए? क्या पद्मदेव में कोई खामी है।' पूर्वभव का अनुराग / ९७
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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