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________________ 'नहीं सखी! तेरे पिताजी ने धनदेव के घर के विषय में पहले ही चिन्तन कर रखा था.... किन्तु वे तुझे झूरती विरहिणी और पति होते हुए भी विधवा अवस्था में देखना नहीं चाहते। सामुद्रिक व्यापारियों की पत्नियों की यही दशा होती है और उन व्यापारियों का चारित्र भी कलंकित ही होता है, क्योंकि पत्नी के अभाव में वे प्रवास में दासियों के साथ क्रीड़ारत रहते हैं। ऐसे परिवार में सेठजी तुझे देना नहीं चाहते। वे किसी संस्कारी और गुणवान् गरीब व्यक्ति को भी पसंद कर सकते हैं। परन्तु धनदेव सेठ के घर को पसंद नहीं कर सकते।' 'ओह... सखी! अच्छा होता मेरे पर वज्र आ गिरता। उसकी वेदना मैं हंसती-हंसती सहन कर लेती..... पूर्वभव में मैं उनके बिना एक क्षण भी नहीं रही तो अब इस मनुष्य भव में मैं मेरे प्रियतम के बिना कैसे जी सकती हूं ? मुझे तो एक आशंका भी होती है.......' 'क्या?' 'यदि उनको यह ज्ञात हो जाएगा कि नगरसेठ ने मांग स्वीकार नहीं की है तो वे अत्यधिक व्यथित होंगे और संभव है मेरे बिना एक क्षण भी जीवन जीना वे न चाहें और कुछ अनर्थ कर बैठें।' कहते-कहते तरंग रो पड़ी। सारसिका बोली-'तरंग! इस प्रकार व्यथित होने से काम कैसे चलेगा? विपत्ति के समय बुद्धिबल से विपत्ति-निवारण का उपाय सोचना चाहिए.... विपत्तिकाल में धैर्य ही मित्र और सहयोगी होता है....।' यह कहकर सारसिका ने अपने उत्तरीय के पल्ले से तरंग के आंसू पोंछे।। कुछ क्षणों तक मौन रहने के पश्चात् तरंगलोला बोली-'मेरे मन में एक बात उभरी है। तुझे मेरा एक काम करना होगा।' 'बोल, तेरे हित का जो कार्य होगा, वह मैं तत्काल संपादित करूंगी।' 'तो चल, हम चित्रकक्ष में चलती हैं। वहां जाकर मैं एक पत्र लिखकर दूंगी.....' तू उसे मेरे प्रियतम तक पहुंचा देना।' इतने में नगरसेठ घर आ पहुंचे। उन्होंने सुनंदा को सारी बात बताई और धनदेव की मांग को अस्वीकार करने का कारण भी बता दिया। सारसिका को लेकर तरंगलोला चित्रखंड में गई। सारसिका ने कहा-'तरंग! सोच-समझकर पत्र लिखना। बहुधा ऐसा होता है कि मनुष्य भावना के प्रवाह में बहकर कर्त्तव्य को भूल जाता है। कर्तव्य और भावना-दोनों उत्तम हैं....... किन्तु कभी कर्त्तव्य के वशीभूत होना होता है और कभी भावना के। तू चतुर है, इसलिए लिखने से पूर्व सब कुछ सोच लेना।' ‘सारसिका! मैं कर्त्तव्य और भावना का सामंजस्य करूंगी।' कहकर तरंगलोला पत्र लिखने बैठी। उसने लिखा ९८/ पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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