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________________ धनदेव ने पत्नी की बात को स्वीकार कर नगरसेठ के भवन पर रथिक को रथ ले जाने की आज्ञा दी। जब वे नगरसेठ के भवन पर पहुंचे तब नगरसेठ अपनी बैठक में आ गए धनदेव को आते देख वे उठे और बोले-'अरे धनदेव सेठ! आश्चर्य हो रहा है। पधारो.. पधारो ।' थें धनदेव ने नगरसेठ को प्रणाम किया । नगरसेठ ने पूर्ण सम्मान से धनदेव को अपने पास बिठाकर पूछा- 'क्यों, सभी कुशल तो हैं ? ' ‘धर्म के प्रताप से सब कुशलक्षेम है। आप सभी कुशल हैं ?' 'हां, सभी पुत्र व्यवसाय संभालते हैं और मैं अभी निवृत्ति का जीवन जी रहा हूं" आपके पधारने का उद्देश्य बताएं" नगरसेठ ने विनयपूर्वक कहा । धनदेवसेठ को भवन में आए हुए जानकर सारसिका नगरसेठ के कक्ष के पास आकर ओट में खड़ी हो गई। औपचारिक व्यवहार के संपन्न होने पर सेठ धनदेव ने नगरसेठ से कहा- ' आज विशेष प्रयोजन से यहां आया हूं। आप जानते ही हैं कि मेरे एक युवा पुत्र है क्या वह कहीं दीर्घ 'हां, हां मैंने उसको आते-जाते देखा था सामुद्रिक यात्रा में प्रस्थान कर रहा है ? ' 'अभी तो नहीं जाएगा' पद्मदेव संस्कारी और गुणवान् है। मेरे परिवार की यह इच्छा है कि आपके कन्यारत्न की सगाई उससे हो आपकी कन्या मेरे घर पुत्रवधू के रूप में आए हम एक ही नगर के वासी हैं, इसलिए सारी अनुकूलताएं रह सकती हैं। ' नगरसेठ ऋषभसेन का चेहरा विचारों की रेखाओं से आकीर्ण हो गया। वह कुछ क्षणों बाद बोला- धनदेव सेठ! मैं कन्या का पिता हूं और मेरी एकाकी कन्या देवकन्या जैसी है। मैंने उसके वर की खोज के लिए इस नगरी के योग्य युवकों को एक-एक कर विचार किया है। आपके घर का भी मैंने विचार किया था संपत्ति, प्रतिष्ठा और कुल - गौरव से आपका घर श्रेष्ठ है, इसमें कोई संशय नहीं है । आपका पुत्र भी गुणसंपन्न है। मुझे स्मृति है कि पद्मदेव संगीत के शौकीन मेरी पुत्री तरंग को भी चित्रकला का शौक है " 1 हैं धनदेव ने तब प्रसन्न स्वरों में कहा - ' तो फिर आप मेरी मांग का सत्कार और कन्यादान के करें। इससे हम दोनों के परिवार अटूट बंधन में बंध जायेंगे समय आप जो देंगे वह मेरे लिए अधिक ही होगा I' 'धनदेव सेठ! देना - लेना मेरे लिए बड़ी बात नहीं है" एकाकी पुत्री को पूर्ण संतुष्टि हो, यह मेरी भावना है। आपके घर के विषय में मैंने दूसरे ढ़ंग से भी सोचा है आप सामुद्रिक व्यापारी हैं लाखों सोनैया का व्यापार होता ९६ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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