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________________ कारोबार चल रहा था। उसने अपनी संपत्ति का सदुपयोग करने के लिए अनेक स्थानों पर धर्मशालाएं, प्याऊ आदि का निर्माण कराया था। उसके हृदय में धर्म के प्रति समादर था, परन्तु एक व्यापारी होने के कारण जहां कहीं व्यापार का सौदा होता, वहां बड़े से बड़ा खतरा लेने में भी वह कभी नहीं हिचकता था। आज तक भाग्य ने उसका साथ दिया था। ___ पत्नी की रात्रिकालीन बात सुनकर धनदेव ने कहा-'प्रिये! लड़की के पिता के पास सगाई की मांग करने जाने में कोई दोष नहीं है....व्यवहार है। समान कुल गौरव वाले आपस में इस प्रकार का व्यवहार करते रहे हैं..."परन्तु...।' ‘परन्तु क्या?' 'नगरसेठ ऋषभसेन के समक्ष राजगृह के नगरसेठ ने अपने पुत्र के लिए तरंगलोला की मांगनी की थी, परन्तु ऋषभसेन ने उनकी मांग को नकार डाला था ।' पत्नी हंस पड़ी। उसने हंसते-हंसते कहा-मैं जानती हूं....परन्तु आप आन्तरिक बात नहीं जानते। नगरसेठ के आठ पुत्र हैं और केवल एक ही बेटी है। उसका लालन-पालन भी इन्होंने विशेषरूप से किया है। ऐसी सुंदर और सुशील कन्या को अपने से दूर रखने की इच्छा सेठ और सेठानी को न हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। इसीलिए वे बाहर से आने वाली मांगों पर ध्यान नहीं देते। आप तो इसी नगरी में रहते हैं। यश, कीर्ति और संपत्ति में आप नगरसेठ के बराबर हैं और पुत्र पद्म भी हजारों में एक जैसा है। मुझे विश्वास है कि नगरसेठ आपकी बात को मानेंगे। उसका सत्कार करेंगे।' _ 'मुझे वहां जाने में कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु एक प्रश्न है कि पद्म के मन में ऐसी इच्छा क्यों उभरी?' ‘ऐसे प्रश्न करने से पूर्व आपको अपने यौवन के प्रारंभकाल की स्मृति करनी चाहिए। पद्म युवावस्था में है। संभव है उसने कहीं तरंगलोला को देखा हो अथवा मित्रों से उसके रूप-गुण के विषय में सुना हो। स्वाभाविक है कि पद्म के मन में तरंगलोला को अपनी पत्नी बनाने की भावना जागे।' दो क्षण रुककर धनदेव ने कहा-'तुम अपनी नगरी के अरुणदत्त सेठ को जानती हो?' 'हां, जो करोड़पति हैं, वे ही तो? उनके दो पुत्र हैं..... कपड़े के बड़े व्यापारी हैं....... किन्तु दोनों पुत्र ऐसे हैं कि उनको देखने का मन ही नहीं होता..... वर्ण श्याम और दुबले-पतले। नगरसेठ ने अरुणदत्त की बात को हंस कर टाल दी थी, वह मैं जानती हूं। कोई भी माता-पिता अपनी सुन्दर कन्या का ऐसे व्यक्ति से विवाह नहीं करते।' दो दिन बाद..... पूर्वभव का अनुराग / ९५
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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