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________________ मैं मोहबंधन का अपनयन कर आत्मदर्शन की आराधना में अपना पुरुषार्थ लगाऊंगी ।' सारसिका स्थिरदृष्टि से तरंगलोला को देखती रही। सखी की तीव्र अभीप्सा से उसे यह विश्वास हो गया था कि उसकी भावना अवश्य ही फलित होगी, पूर्वजन्म के पति की प्राप्ति अवश्य होगी। इस प्रकार बतियाते हुए दोनों निद्राधीन हो गईं। प्रभात होते-होते पूरा परिवार जाग गया। आज चातुर्मासिक महादिवस था। सभी ने उपवास व्रत किया। आज कर्म-निर्जरा का विशेष दिन था। सभी आराधना में जागरूक थे। व्यापार आदि आज बंद रहता था। पूरा दिन धर्म की आराधना में बीतता था। संध्याकाल में प्रतिक्रमण की आराधना कर अपन-अपने दोषों की स्मृति कर उनका प्रायश्चित्त करते और उनका पुनरावर्तन न हो, इसका संकल्प करते। चतुर्दशी की रात धर्माराधनापूर्वक व्यतीत हो गई। कौमुदी पर्व का प्रभात नई उमंगें बिखेरता हुआ उदित हुआ। नगरसेठ के परिवार ने आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होकर, साधु-संतों के दर्शन कर, भवन पर आकर उपवास का पारणा किया। कल निर्जरा का पर्व था और आज दान का पर्व था। नगरी के श्रीमंत, सेठ, सार्थवाह और गृहस्थ अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार दान देने में प्रवृत्त होते थे। वे मानते थे कि दान संपत्ति के त्याग का पुरुषार्थ है...... ममत्व की मूर्छा से जागने का उपक्रम है... सुपात्र दान को वे उत्तम मानते थे। अन्यान्य दानों को वे व्यवहार मात्र मानते थे और गृहस्थ के कर्तव्य बोध से अनुप्राणित होकर वे उसमें प्रवृत्त होते थे। सभी लोग साधु-संतों को गोचरी के लिए पधारने की प्रार्थना करते थे। __दिन बीता। सूर्यास्त के पहले सारसिका ने राजमार्ग पर स्थित भवन के नीचे मंडप में तरंगलोला द्वारा सूचित क्रम से सारे चित्रपट्ट यथास्थान नियोजित कर दिए। नगरसेठ के उस विशाल भवन में एक सुंदर आराधना कक्ष था। इसी कक्ष में भवन के सभी स्त्री-पुरुष धर्म की आराधना करने एकत्रित होते थे। पर्व तिथियों में इसी कक्ष में पौषध व्रत की आराधना की जाती थी। तरंगलोला ने माता सुनंदा तथा अपनी भाभियों के साथ पौषध व्रत ग्रहण किया तथा नगरसेठ ने अपने पुत्रों के साथ पौषध व्रत की आराधना स्वीकार की। यह व्रत साधु जीवन जैसा कठिन होता है। पौषध व्रत में संसार की कोई क्रिया नहीं की जाती....... इसमें साधक को ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में तल्लीन रहना होता है। पूर्वभव का अनुराग / ८१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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