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________________ 'राजमार्ग पर अपना एक तिमंजिला भवन है, यह तो तू जानती ही है...' 'हां।' "ऐसे तो वह भवन मुक्त है। कोई बाधा नहीं है। उस भवन के मध्यभाग में एक छाया हुआ खुला स्थान है। वहां सभी चित्रों की क्रमश: व्यवस्थापना करनी है। मैंने चित्रों पर अंक भी लगा लिए हैं। पूर्णिमा की रात्रि के प्रारंभ से ही नगर के लोगों के झुंड के झुंड उत्सव की आराधना करने राजमार्ग से गुजरेंगे. और लगभग सभी सारी रात घूमते रहेंगे.... और यदि पूर्वजन्म के मेरे प्रियतम इस नगरी में उत्पन्न हुए होंगे तो वे भी घूमने निकलेंगे और संभव है इन चित्रों को देखकर उनमें पूर्वजन्म की स्मृति जागृत हो जाए। मृत्यु के समय हम दोनों अपूर्व मस्ती में थे..... उनका मेरे प्रति अपूर्व प्रेम था... एक क्षण के लिए भी वे मेरे से विलग नहीं होते थे ..... इसी प्रेमबंधन के कारण उनका जन्म भी इसी नगरी में हुआ होगा, ऐसा मेरा मन कह रहा है। इसलिए मुझे आशा है कि परसों कौमुदी उत्सव को मनाने जब सभी लोग, आबाल-वृद्ध आएंगे, उनमें वे भी होंगे..... और संभव है इन चित्रों को देखते ही पूर्वजन्म की स्मृति और पूर्वजन्म के सारे घटना-प्रसंग उनके मन पर नाचने लग जाएं।' सारसिका बोली-'सखी! तेरी श्रद्धा के अनुसार मान लिया जाए कि पूर्वजन्म के पति इस नगरी में जन्मे हों...... और इन चित्रों को देख भी लें..... परन्तु उनको पहचानेगा कौन.....? तू भी पूर्णिमा की रात में पौषध व्रत की उपासना में रहेगी और मैं भी तेरे साथ ही पौषध व्रत स्वीकार करूंगी.....' 'नहीं, सखी! तुझे तो मेरे चित्रों के पास ही रहना होगा...... यदि वे चित्र देखने कक्ष में आ जाएंगे तो अन्य दर्शकों से भी उनके मन पर इन चित्रों का बहुत प्रभाव पड़ेगा और मेरे अनुमान के आधार पर चित्रदर्शन से उनको पूर्वजन्म की स्मृति अवश्य होगी। सखी! जातिस्मृति ज्ञान कर्मावरण के अपनयन के साथ ही साथ विभिन्न निमित्तों से भी होता है। पूर्वजन्म के घटनाप्रसंग इस ज्ञान की उत्पत्ति के सशक्त निमित्त हैं। दूसरी बात है, मैंने जो ये चित्रपट्ट तैयार किए हैं वे जीवन्त दृश्यों के समान हैं...... उस समय जो स्थिति थी उसी को मैंने चित्रांकित करने का प्रयास किया है..... और वह प्रयास यथार्थ परक है... इसलिए उन्हें अवश्य ही जातिस्मृति ज्ञान होगा और जिसको यह ज्ञान उत्पन्न होता है उसके वदन पर आन्तरिक भाव-विभाव प्रतिबिम्बित होने लगते हैं और उसे मूर्छा भी आ जाती है...... जिस व्यक्ति में ऐसा हो, उसे तू ध्यानपूर्वक देखना.....और यदि पूर्वभव के मेरे पति यहां न जन्मे हों अथवा चित्रदर्शन के लिए न आएं तो भी मेरा मार्ग सरल हो जाएगा। इस विराट् भव अटवी में मोह ओर प्रेम के पाश से बंधे हुए जीव पुनः मिलते ही हैं. इतना होने पर भी यदि वे नहीं मिलेंगे तो तू मेरा निश्चय जानती ही है कि मैं अन्य के साथ विवाह-बंधन में नहीं फसूंगी... फिर ८० / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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