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________________ दिन बीतने लगे। चित्रपट्टक तैयार होने लगे । तरंगलोला के भाई, भाभी, माता-पिता तथा अन्य स्वजनों ने वे चित्र देखे । उनकी सजीवता पर सबने प्रसन्नता व्यक्त की। नगरसेठ और सुनंदा ने सोचा, ऐसे चित्रों के चित्रांकन में लवलीन होकर कन्या बहुत प्रसन्न रहती है, आनन्द का अनुभव करती है। यह अच्छा उपक्रम है। साढ़े चार मास बीत गए पर कन्या को कभी कोई शारीरिक परेशानी नहीं हुई ओह ! चित्र कितने सुन्दर बनाए हैं ! मानो वे सारे दृश्य वास्तविक हों ! और कौमुदी महोत्सव में जब केवल बीस दिन शेष रहे तब तरंगलोला ने बयालीस चित्रपट्टकों में अपने पूर्वजन्म के सारे स्मृतिसंपुट अंकित कर लिए। सारसिका भी इन चित्रों को देखकर मुग्ध बन गई थी। तरंगलोला ने सारे चित्रपट्टक फ्रेमों में मढ़ा दिए | कार्तिकी पूर्णिमा के दो दिन शेष रहे। समूचे नगर में कौमुदी महोत्सव की धूमधाम से तैयारियां होने लगीं। दान, धर्म और आराधना के इस पवित्र दिवस पर धनाढ्यों द्वारा विविध प्रकार का दान आदि की पूर्व तैयारियां संपन्नप्राय थीं। नगरसेठ ने भी पूर्ववत् महोत्सव की तैयारियां कर लीं। संध्या के बीतने पर प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं संपन्न कर सभी सदस्य एकत्रित हुए। देवी सुनंदा ने सभी व्यक्तियों की इच्छा जानने के लिए पूछा- 'कल चातुर्मासिक चतुर्दशी है " उपवास में कौन-कौन साथ देंगे ?' घर के सभी सदस्यों ने उपवास करने की इच्छा व्यक्त की । तरंगलोला ने भी उपवास करने की भावना बताई। यह सुनकर नगरसेठ ने कहा- 'बेटी ! तेरी भावना में अन्तराय डालना नहीं चाहता, किन्तु इतने दिनों तक तूने अथक श्रम किया है, तू एकाशन करे तो ठीक रहेगा।' 'नहीं, पिताजी! प्रतिवर्ष मैं इस व्रत को करती रही हूं। फिर इस बार क्यों मैं उस व्रत की विराधना करूं? और आप ही तो बहुधा कहते रहे कि व्रत और तप से दृष्टि का विशोधन होता है, चित्त निर्मल बनता है तो फिर मैं इस लाभ से वंचित क्यों रहूं ?" हैं माता ने तरंगलोला का समर्थन करते हुए कहा- 'तू आनन्दपूर्वक उपवास कर' फिर सारसिका की ओर मुड़कर कहा - 'सारसिका ! कल तुम घर मत जाना सारसिका ने हंसते हुए 'जी' कहा और मस्तक नमाया फिर कुछेक चर्चाएं कर सभी सदस्य अपने - अपने खंड में चले गए। तरंगलोला भी माता-पिता को प्रणाम कर सारसिका के साथ अपने शयनखंड में चली गई। दोनों सखियां एक ही पलंग पर सो जाती थीं। दोनों ने कपड़े बदले और पर्यंक पर सो गईं। सारसिका ने प्रश्न किया- 'सखी! चित्रों की व्यवस्थित स्थापना के लिए तू मुझे कब बताएगी ?' पूर्वभव का अनुराग / ७९
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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