SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मैं कैसे बताऊं? कल्पना मनोगत है और उसे चित्र में उतारना है...... अभी तो कार्य का प्रारंभ भी नहीं हुआ है....... फिर भी जो क्रम मैंने निश्चित किया है वह इस प्रकार है-एक चक्रवाक दंपती है...... इनका स्नेहजीवन अति मधुर है......' दोनों वनप्रदेश में रहते हैं...... एक ओर पवित्र गंगा नदी का किनारा है... दूसरी ओर छोटा किन्तु मनोहर सुंदर सरोवर है....... वनप्रदेश में विविध प्रकार के वृक्ष हैं......' चक्रवाक दंपती इस प्रदेश में कैसे रहते हैं, कैसा मधुर जीवन जीते हैं, कैसे आनन्दमग्न होते हैं, दोनों परस्पर कितने खो जाते हैं, आदिआदि प्रसंगों को क्रमशः चित्रांकित करने का विचार है। साथ ही साथ अन्यान्य पशु-पक्षियों के चित्र भी उसमें होंगे।... एक दिन उस सरोवर में एक गजराज आता है....... एक पारधी आता है..... हाथी जलक्रीड़ा कर सरोवर के किनारे आता है। उस समय चक्रवाक दंपती हाथी की मस्ती देखने आकाश में उड़ते हैं...... पारधी बाण छोड़ता है..... वह बाण नरचक्रवाक के शरीर को बींध डालता है...... करुण चीख के साथ नरचक्रवाक भूमि पर लुढ़क जाता है...... चक्रवाकी स्तब्ध रह जाती है...... हाथी भाग जाता है...... पारधी शोकमग्न होकर चक्रवाक के शरीर से बाण निकालता है...... एक चिता जलाकर चक्रवाक का दाह संस्कार करता है....... और वियोग के दुःख से झूरती हुई चक्रवाकी उस चिता की अग्नि में झंपापात कर लेती है और पति के साथ जलकर राख हो जाती है.... बस, मेरे चित्रों की यह मधुर वेदनामय कल्पना है।' ____ 'ओह! यह तो दर्दभरा कथानक है। आपने विवाह नहीं किया, इसलिए यह मधुर वेदना जान पड़ती है.... अच्छा, आप कितने चित्रों में इस कथानक को चित्रित करेंगी......?' 'भाभी! ऐसे तो मैं इस पूरे वृत्तान्त को पचास चित्रों में समाप्त करना चाहती हूं. हां, पांच-दस कम या अधिक भी हो सकते हैं।' तरंगलोला ने कहा। 'कथा हृदयवेधक है...... मैं आपकी सफलता चाहती हूं...... इस कार्य में समय तो लगेगा ही ।' | 'हां, भाभी! समय भले ही लगे, मैं इसको पूरा करके ही श्वास लूंगी। मनुष्य जब कार्य से तदाकार हो जाता है, तन्मूर्ति हो जाता है, तब कार्य पूरा होता ही है। समय की उसमें प्रतिबद्धता नहीं होती।' दूसरे ही दिन से तरंगलोला ने कार्य प्रारंभ कर दिया। स्वयं को जातिस्मृति ज्ञान होने के कारण पूर्वभव के सारे दृश्य उसके स्मृतिपटल पर यथार्थरूप में उभर रहे थे....... दृश्यों को अंकित करने की निपुणता उसने इस जन्म में सीखी थी..... तीन दिनों में उसने एक चित्रपट्ट तैयार कर दिया.....इसमें वनप्रदेश और सरोवर का दृश्य था...... विविध पशु-पक्षी वहां क्रीड़ा कर रहे थे, उड़ान भर रहे थे....." यह पहला चित्रपट्ट बहुत सुंदर और यथार्थ बना था। ७८ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy