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________________ दोनों सखियां झूले पर बैठ गई 1 मन चिरयुवा रहता है। उसके वय की कोई मर्यादा नहीं होती मन सदा चंचल बना रहता है। जब तक मन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती तब तक प्राणी संसार में भटकता रहता है" यौवन का प्रारंभकाल भी बहुत चंचल होता है" यौवन में जिज्ञासाएं प्रचुररूप में उभरती हैं उसमें तृषा और तृप्ति का कोई भान न होने पर भी मन में अजीब अकुलाहट अन्त:करण में क्रीड़ा करने लग जाती है। चलाया सारसिका ने मंद गति से झूला तरंगलोला ने सारसिका से पूछा - 'मेरा प्रश्न तो याद है न ?' 'प्रश्न तो याद है, परन्तु उसका उत्तर क्या दूं? सोलहवां वर्ष चल रहा माता-पिता उतावल करें, यह स्वाभाविक है और कहते-कहते तरंगलोला हंस पड़ी ।' 'तेरा मन भी सारसिका ने तत्काल कहा - ' मेरे मन को कुछ क्षणों के लिए भूल जा आने वाले कल में तेरा मन भी मीठी अकुलाहट में तेरे मन का विचार कर फंस जाए।' 'मेरे प्रश्न का उत्तर ?' 'मैं कैसे दूं? मां की इच्छा है कि गांव में ही योग्य वर की खोज की पिताजी इससे विरुद्ध हैं यदि मां की जीत होगी तो हमारा वियोग जाए नहीं होगा और पिताजी जीतेंगे तो " बीच में ही तरंगलोला बोल पड़ी - 'सखी! तेरे बिना मैं एक पल भी जीवित नहीं रह सकूंगी... क्या तू अपने पिताजी को समझा नहीं सकती ?' 'पगली ! माता-पिता के विचारों के बीच मैं क्यों जाऊं ? आज्ञाकारी बालक माता-पिता की आज्ञा को आशीर्वाद मानते हैं और इसी में उनका मंगल है' परन्तु तेरे जैसा ही प्रश्न मेरा भी है। ' तरंगलोला ने प्रश्नभरी दृष्टि से सारसिका की ओर देखा । सारसिका बोली- 'तेरी सगाई यदि अन्य नगरी में होगी तो ?' 'नहीं होगी 'तू ऐसा कैसे कहती है? कल ही तूने कहा था कि पिताजी राजगृह की ओर ढूंढ रहे हैं ...? 'पिताजी ने प्रयत्न प्रारंभ किया है, परन्तु 'परन्तु क्या' ?' 'तेरी मां की भांति ही मेरी मां भी इसी नगरी का आग्रह रखती हैं अतः मैं निश्चित रूप से कह सकती हूं कि पिताजी मेरी मां के आग्रह को टाल नहीं सकते न जाने मेरा मन विवाह करने के लिए परन्तु क्या कहूं" ६२ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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