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________________ तीन वर्ष और बीत गए। अभ्यास सुचारुरूप से चल रहा था। पद्मदेव में कवित्व शक्ति स्वाभाविक थी और तरंगलोला को चित्रकला का शौक था। तरंगलोला जब चौदह वर्ष की हुई, तब उसका ज्ञानाभ्यास पूरा हुआ..... यद्यपि ज्ञानाराधना जीवनभर करने पर भी पूरी नहीं होती, फिर भी आवश्यक ज्ञान की आराधना हो जाने पर माता-पिता निश्चिन्त हो जाते हैं। तरंगलोला को बाल्यकाल से ही चित्रकला का शौक था और अभ्यासकाल में वह साधना के रूप में विकसित हुआ। अब वह यौवनावस्था को प्राप्त हो गई थी...... वह बालिका से तरुणी बन गई थी...... उसका रूप बेजोड़, अपूर्व और अनिंद्य। कवि अनिंद्य सुंदरी का वर्णन करते-करते पागल हो जाते हैं और उस वर्णन को पढ़ने वाले मुग्ध हो जाते हैं। परन्तु तरंगलोला को देखने के पश्चात् कवियों के सभी वर्णन शुष्क और फीके हो जाते थे। जब कभी तरंगलोला अपने भवन के विशाल उपवन में सखियों के साथ भ्रमण करने निकलती तब उपवन के पुष्पखंड में पुष्पों पर मंडराने वाले भ्रमर भान भूलकर तरंगलोला के वदन कमल पर मंडराने लग जाते। फूल की कोमलता मर्यादित समय तक ही रहती है.... परन्तु तरंगलोला के अधर-वदन की कोमलता तो मानो चिरकाल तक रहने योग्य निर्मित हो, ऐसा प्रतीत होता था। तरंगलोला की सखियों में सारसिका नाम की एक समवयस्क सखी उसे अतिप्रिय और विश्वस्त थी। तरंगलोला अपने मन की बात सारसिका से नहीं छिपाती थी और सारसिका भी अपने मन की बात को तरंगलोला से गुप्त नहीं रखती थी। सारसिका ने अभी-अभी सोलहवें वर्ष में प्रवेश किया था और तरंगलोला कुछेक महीनों पश्चात् पन्द्रह वर्ष की होने वाली थी। एक दिन दोनों सखियां सायंकाल के समय प्रतिदिन की भांति उपवन में गई। __ नगरसेठ का उपवन रमणीय, विशाल और राजा के उपवन की प्रतिस्पर्धा करने वाला था। उपवन की सुरक्षा के लिए अनेक माली थे। उपवन के मध्य भाग में एक मनोहर लतामंडप था। इस विशाल लतामंडप में कांच के आसन यत्र-तत्र बने हुए थे और दो व्यक्ति बैठ सकें ऐसे स्वर्ण की सांकलों से बंधे झूले थे। ___ इस लतामंडप में दोनों सखियां आईं और इधर-उधर घूमकर एक झूले पर बैठ गईं और बतियाने लगीं। जैसे पति-पत्नी की बातों का अन्त नहीं आता, दो अनुरक्त प्राणियों की बातें अनन्त होती हैं, वैसे ही दो मित्रों की बातें भी अनन्त होती हैं। बहुत बार यह प्रश्न उभरता है कि इतनी बातें कहां से उत्पन्न होती हैं? परन्तु आज तक कोई इसका उत्तर नहीं दे पाया। जैसे मन अनन्त है, वैसे ही बातें, विचार और उमंगें भी अनन्त होती हैं। पूर्वभव का अनुराग / ६१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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