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________________ उत्सुक ही नहीं हो रहा है।' 'तू तो पागल है। यौवन को यौवन का साथ ही अच्छा लगता है। नर और नारी एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसे टूटे हुए पंख वाला पक्षी उड़ नहीं सकता, इसी प्रकार अकेला पुरुष या अकेली स्त्री उड़ नहीं सकती। तेरे चारों भाई विवाहित हो चुके हैं। कैसे शोभित हो रहे हैं! चारों भाभियों के मन में मिलन की कितनी अधीरता रहती है! यदि संसार में रहना हो तो दो होकर ही रहना होगा। तुझे विवाह करने की इच्छा क्यों नहीं होती?' _ 'तू जो कुछ कह रही है, मैं जानती हूं... परन्तु विवाह की बात करते ही मन जड़ हो जाता है...... और उस समय मेरी जो अवस्था होती है, उसे मैं स्वयं नहीं समझ पाती।' सारसिका दो क्षण तक तरंगलोला की ओर घूरती रही, फिर बोली-'सखी! मुझे प्रतीत होता है कि तूने किसी का दु:खमय विवाहित जीवन देखा है, जाना है, अत: तेरे मन पर उस दुःख का प्रतिबिम्ब अंकित हो गया है। विवाह केवल नर और नारी का मिलन सुख मात्र नहीं है, वह तो मानववंश की बेल को अमर रखने वाला पवित्र कर्त्तव्य है।' तरंगलोला बोली-'सारसिका! किसी के दुःखमय विवाहित जीवन की मुझे स्मृति भी नहीं है और मन भी भयाक्रान्त नहीं है। मैं मानती हूं कि माता-पिता उनके बालकों में ही जीवित रहते हैं। विवाह केवल नर-नारी की नहीं...... पुरुष और प्रकृति के कर्मयोग का तप है....... संसार में रहने वाले इस तप से ही सिद्धि प्राप्त करते हैं..... फिर भी...।' सारसिका ने तत्काल तरंगलोला का हाथ पकड़ते हुए कहा-'यह एक भ्रमना है... यदि माता-पिता को तेरी इस ऊलजलूल बातों का पता लगेगा तो वे कितने दु:खी होंगे इस उपवन का जलाशय कितना सुंदर था? यदा-कदा भवन की स्त्रियां जलाशय में जलक्रीड़ा का आनन्द उठातीं...... परन्तु जलाशय को देखते ही तू चौंक जाती, अस्वस्थ हो जाती, इसलिए बापू ने पूरे जलाशय को ही सुखा दिया।' तरंगलोला झूले पर खड़ी होकर बोली-'ओह! अंधकार छाने लगा है। चल, भवन में चलें....... मां तो प्रतीक्षा ही करती होगी।' दोनों सखियां लतामंडप से बाहर निकलकर भवन की ओर चली, तब दो परिचारिकाएं आ पहुंची और बोलीं-'बहिनश्री! सेठानीजी आपको कब से याद कर रही हैं।' 'मैं आ रही हूं।' कहकर तरंगलोला सारसिका के हाथ से हाथ मिलाकर चलने लगी। यौवन की उदग्रता। पूर्वभव का अनुराग / ६३
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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