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________________ गत कुछेक पीढ़ियों से उसका परिवार नगरसेठ की पदवी भोग रहा था और वह उत्तरोत्तर शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह वृद्धिंगत होता हुआ विकसित हो रहा था। __एक व्यापारी और दूसरा राजा। दोनों की मैत्री बाल्यकाल से आज प्रौढ़ावस्था तक एक धार चली आ रही थी। ऋषभसेन नगरसेठ की संपदा बड़े-बड़े राजाओं को भी लज्जित करने वाली थी। इसका भवन राजप्रासाद से भी अधिक भव्य और रमणीय था। जब वह प्रातः पूजा के लिए घर से रवाना होता तब अपने रथ में मोहरों से भरा चरु लेकर निकलता और रास्ते में मुट्ठी भर-भर कर रास्ते में उछालता जाता। घर आकर जब वह दातून करने प्रांगण में बैठता तब जो भी याचक आता वह तृप्त होकर ही जाता। इतना ही नहीं, कौशांबी नगरी के लोगों के लिए भी नगरसेठ आश्रयरूप था। किसी की आर्थिक विपत्ति आ पड़ती तो नगरसेठ का धन-भंडार खुला था। वह सहयोग करता, परन्तु तीसरे व्यक्ति को ज्ञात तक नहीं होता कि अमुक ने नगरसेठ से मदद पाई है। नगरसेठ सजग था कि दायें हाथ से दिया जाने वाला सहयोग बायें हाथ को भी ज्ञात न होने पाए। संक्षेप में नगरसेठ अपार संपत्ति का स्वामी था, किन्तु धन से लिपटे रहने में वह अन्याय, अधर्म और अकल्याण मानता था। भवन विशाल था। उसकी तीन मंजिलों में छत्तीस कमरे थे। शताधिक दास-दासी थे। दस गजराज, चालीस अश्व और उसके गोकुल में आठ सौ से अधिक गाय-बैल आदि थे। दूध और घी की नदियां बहती थीं। ऋषभसेन सभी प्रकार से सुखी था। उनकी पत्नी का नाम सुनंदा था। उसने आठ पुत्रों का प्रसव किया था। भवन उन बालकों के कलरव से गूंजता रहता था। सुनंदा चालीस वर्ष की थी और नगरसेठ पैंतालीस वर्ष का था। देखने वाले पारखी लोग भी सुनंदा को तीस वर्ष की ही मानते थे। वह स्वस्थ, सुंदर और सुडौल थी। आठ-आठ प्रसूति करने के बाद भी उसका रूप, यौवन और आरोग्य अखंड था। ___वह सभी प्रकार से सुखी थी। यश, कीर्ति, उत्तम स्वभाव आदि सब कुछ था... फिर भी छह मास पूर्व जब उसने आठवें पुत्र को जन्म दिया, तब देवी सुनंदा सहजभाव से उदासीन बनी थी। आठ पुत्रों के जन्म के पश्चात् उसके मन में एक आशा उभरी थी कि अब एक पुत्री आवश्यक है। माता का आश्रय जीवित कन्या होती है... पिता अपने पुत्रों से जीवित रहता है। __उत्तम माता-पिता की गोद में क्रीड़ा करने वाले बालक भी उत्तम होते हैं...... कोई कभी दुष्टात्मा भी उत्तम माता-पिता के घर जन्म ले लेता है..... यह आपवादिक है, सर्व सामान्य बात नहीं। रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा हुआ। सुनंदा अपने छहों बालकों को सुलाकर, पूर्वभव का अनुराग / ५५
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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