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________________ सबसे छोटे दो बालकों को धाय माता को सौंप कर प्रतिक्रमण करने बैठ गई। सेठ ऋषभसेन आज जल्दी ब्यालू कर उपाश्रय में गए थे। वहां से वे अपनी दुकान पर अथवा राजभवन में जाते। सुनंदा प्रतिक्रमण संपन्न कर उठी । उसने सोचा, सेठजी अभी तक नहीं आए हैं। संभव है राजभवन में विलंब हो गया हो । यह सोचकर वह सभी पुत्रों की सार-संभाल कर शयनगृह में गई और उसी समय प्रांगण में रथ की ध्वनि सुनाई दी। कुछ ही क्षणों के पश्चात् नगरसेठ ऋषभसेन भवन में आ पहुंचे। सुनंदा शयनगृह के द्वारमुख पर खड़ी थी। सेठ को देखते ही, उसके नयन प्रसन्नता से भर गए। तत्काल दो दास दौड़े-दौड़े आए और सेठजी के वस्त्र बदलाये । सेठ ने पत्नी के सामने देखते हुए कहा- 'प्रिये! आज कुछ विलंब हो गया। मैं दुकान से सीधा राजभवन में गया था, क्योंकि राजा का महाप्रतिहार मुझे बुलाने दुकान पर आ गया था। महाराजा के समक्ष विशेष चर्चा चली थी और आज तो महादेवी भी चर्चा में बैठी थी । ' 'किस बात की चर्चा थी ?' 'संगीत की । ' बजाई 1 फिर महाराज ने महादेवी को प्रसन्न करने महार्घ वीणा 'आपको तो '' 'राग को मैं नहीं समझता परन्तु महाराजा की वीणा से मिलन की अभीप्सा प्रवाहित हो रही थी और महादेवी के मन का विषाद पलभर में धुल गया था और मेरे मन पर अजब प्रभाव पड़ा था।' 'क्या ?' दोनों दास खंड से बाहर निकल गए। ऋषभसेन मधुर हास्य बिखेरते हुए बोला- 'प्रौढ़ावस्था में मिलनेच्छा प्रबल होती है मेरा मन हुआ कि मैं उड़कर तेरे पास आ जाऊं वास्तव में संगीत औषधियों से भी महान् औषधि है " महाराजा तो इसके साधक हैं तुझे याद होगा कि तीन वर्ष पूर्व महाराजा ने एक उन्मत्त हाथी को इस संगीत के माध्यम से वश में कर लिया था । ' 'मुझे याद है... और महाराजा चंडप्रद्योत की हस्ती सेना को अनेक वर्ष बीत गए किन्तु बनाकर छिन्न-भिन्न कर डाला था 'पागल 'क्यों बात कहते-कहते रुक गए ?' 'ब्यालू कर जब मैं बाहर निकला था तब तेरे चेहरे पर मैंने उदासीनता की रेखाएं देखी थीं ऐसा कोई कारण प्रतीत नहीं हुआ फिर भी ५६ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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