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________________ का और पतंग का । कुछेक वार्ताएं एकरूप होती हैं, कुछ वक्र और कुछ अत्यंत गूढ़ होती हैं। यह कथा भी कुछ ऐसी ही है जिस प्रकार प्रवाह में बहता हुआ तिनका आगे से आगे बहता जाता है परन्तु प्रतिस्रोत से वह मूल स्थान की ओर भी आने लगता है, इसी प्रकार वार्ता को आगे ले जाकर भी पुन: पीछे मोड़ना पड़ता है। हमें ज्ञात हो चुका है कि पारधी सुदंत दो प्रेमी पक्षियों की चिंता में पश्चात्ताप की अग्नि में जीवित ही जल गया ... उसके प्रायश्चित्त को वर्धापित करने वाला भी तब कोई नहीं था हां, प्रकृति स्वयं तो थी ही अब इस कथा की तरंगिणी वत्स देश की राजधानी कौशांबी नगरी का स्पर्श कर रही है। कौशांबी नगरी ! वत्सदेश की लज्जावती वधूसदृश लज्जालु और रसमयी राजधानी! जैसे कोई रूपवती नवयौवना देखने वाले को चौंका देती है, वैसे ही यह आकर्षक और अलबेली नगरी प्रत्येक प्रवासी को विस्मयमूढ़ बना देती थी। यह नगरी अत्यंत सुंदर और मनोहारी होने पर भी इसकी आत्मा तेजस्वी थी महाराज उदयन और उनकी प्रियतमा वासवदत्ता अत्यधिक लोकप्रिय और जागृत थे। जिस राज्य के संचालक सत्ता के मद में उन्मत हो जाते हैं, उस राज्य की जनता कभी सुखी नहीं रह सकती। राजा उदयन जानता था कि मयूर की शोभा उसके प्रवर पंख - पुंज से है राजा की शोभा जनता के प्रेम और सद्भाव से है। राजा यह भी जानता था कि प्रजा का प्रेम प्राप्त करने के लिए राज्यवर्ग को उदार और कर्त्तव्यपरायण होना चाहिए। वहां के नगरसेठ ऋषभसेन महाराजा उदयन के परम मित्र थे। दोनों मित्र दिन में एक बार अवश्य मिलते और यदि संयोगवश कभी मिलना नहीं होता तो दोनों के मन में एक खटक रह जाती। राजा उदयन महान् संगीतप्रिय था। दिव्य महार्घ वीणा को बजाने वाला उदयन के अतिरिक्त कोई था नहीं, क्योंकि महार्घ वीणा देवी सरस्वती की प्रसादी मानी जाती थी और इस वीणा के साधक अल्प मात्रा में ही थे। मगधदेश में बिंबिसार, वैशाली में आम्रपाली और वत्सदेश में उदयन इस वीणा के साधक माने जाते थे। अन्यान्य वीणाओं को बजाने वाले साधक सर्वत्र थे, परन्तु महार्घ वीणा किन्नरजाति का श्रेष्ठ वाद्य था" देवी सरस्वती द्वारा निष्पादित यह वाद्य इतना जटिल और पूर्ण था कि सरस्वती की आराधना के बिना इसमें सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती थी । नगरसेठ ऋषभसेन वाणिज्यकुशल, प्रामाणिक और प्रतिष्ठित व्यापारी था। ५४ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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