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________________ एक दिन रुद्रयश अपने दो समवयस्क साथियों के साथ गंगा तट पर घूम रहा था। आज उसने साथियों के साथ यह निर्णय किया कि मेरे पिताजी के पास प्रचुर धन हैं, फिर भी वे मुझे नहीं देते। अतः अपने आपको आनन्दित करने के लिए मुझे कुछ धन अवश्य एकत्रित करना है। दोनों मित्र भी ऐसे ही थे और तीनों ने छोटी-मोटी चोरियां करने का निर्णय लिया। और आज वे चोरी करने के मन से घूम रहे थे। गंगा के घाट पर एक यात्री परिवार भावपूर्वक गंगास्नान करने आया था। इस परिवार की एक वृद्धा सभी सदस्यों के कपड़े - गहने संभाल कर वहीं बैठी थी । परिवार के अन्य सदस्य गंगास्नान में लीन बन गए थे। रुद्रयश बाज पक्षी की भांति शिकार की खोज कर रहा था। उसकी दृष्टि इस यात्री - परिवार पर पड़ी। उसने अपने साथियों से कहा- देखो, सामने गंगा जल में एक अधेड़ उम्र की बहिन नहा रही है। देख रहे हो ? साथियों ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी । रुद्रयश बोला- 'उस बहिन की कटि में स्वर्ण मेखला है। वह बहिन इतनी मोटी है कि कटिमेखला उसका पूरा स्पर्श भी नहीं कर पा रही है। मैं जांघिया पहन कर नदी में उतरता हूं तुम दोनों तीसरे घाट पर मिलना मैं अभी कटिखमेला लेकर आता हूं।' स्वर्ण की कटिमेखला !! 'क्या तुम्हें भय लग रहा है ? चोरी करनी ही है तो फिर ऐसे हाथ मारना है कि दस-बीस दिन तक मौज बन जाए। दो चार रुपयों के लिए क्या चोरी की जाए। यह कहकर रुद्रयश ने अपने कपड़े उतार कर एक साथी को दे दिए और केवल जांघिया पहन कर वहां से चल पड़ा और साथियों को तीसरे घाट पर रवाना किया । ' कुछ ही क्षणों में रुद्रयश स्नान कर रहे परिवार के बीच घुस गया वे सभी घुटने तक पानी में ही खड़े थे और गंगा मैया का स्तोत्रपाठ करते-करते स्नान कर रहे थे । अचानक वह मोटी बहिन चिल्लाई वह उस ओर मुड़ा और पत्नी के पास आकर 'किसी ने मेरी कटिमेखला खींची कटिमेखला ?' उसका पति भी स्नान कर रहा था, पूछा- 'क्या हुआ ?' अरे, कहां गई मेरी स्वर्ण की 'हैं? परन्तु यहां तो कोई नहीं दीख रहा है।' पति ने चारों ओर देखा । पत्नी बोली- 'मुझे भान है कि एक लड़के ने मेरी कटिमेखला पकड़ी है, किन्तु मैं उसे पकडूं उससे पूर्व ही मैं गिर पड़ी । ' पूर्वभव का अनुराग / ३७
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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