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________________ प्रौढावस्था में प्राप्त पुत्र के लाड़-प्यार में एक पूरा वर्ष बीत गया। रुद्रयश मां जैसा सुंदर नहीं था, परन्तु पिता के समान गेहुएं वर्ण वाला था..... परन्तु था वह नीरोग। पांचवें वर्ष में रुद्रयश को पाठशाला में पढ़ने भेजा। ज्यों ही रुद्रयश का छठा वर्ष प्रारंभ हुआ, पंडित गहन चिंता में फंस गए। उनके हृदय में माता के वियोग के ग्रह घूम रहे थे। परन्तु सुशीला पुत्र को देखदेखकर आनन्दित होती। प्रतीत हो रहा था कि जीवन की समग्र अभिलाषा पूरी होने का संतोष उसके नयन-वदन से बाहर फूट रहा था। भावी की रेखा को कौन मिटा सकता है। महापंडित का संशय सच निकला...... रुद्रयश के छठे वर्ष के तीन मास पूरे हुए और एक आकस्मिक घटना घट गई...... सुशीला कुछ स्त्रियों के साथ गंगा-स्नान करने गई थीं और एक नौका में बैठकर बारह स्त्रियां सुपार्श्वनाथ के मंदिर वाले घाट की ओर जा रही थी। अचानक नौका उलटी और दो स्त्रियां गंगा के प्रवाह में बह गईं। एक महापंडित की पत्नी सुशीला थी और दूसरी पड़ोसिन थी। अन्य दस स्त्रियों को मछुआरों ने प्रयत्न से बचा लिया.... परन्तु ये दोनों स्त्रियां दो कोस की दूरी पर निर्जीव अवस्था में मिली थीं। महापंडित के हृदय में संशय का जो शल्य चुभ रहा था, वह अन्त में सत्य निकला और रुद्रयश को संभालने की जिम्मेवारी स्वयं पर आ गई। माता की संभाल में और पिता की संभाल में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। स्त्रियोचित कार्य पुरुष सहजरूप से संपन्न नहीं कर सकते। एकाध वर्ष पश्चात् महापंडित ने देखा कि रुद्रयश का स्वभाव तामसिक बन रहा है। वह घर में रहने के बदले मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलने-कूदने में अधिक रस लेता था। इस प्रकार उसके चार वर्ष और बीत गए। रुद्रयश पढ़ने का प्रयत्न तो करता ही था। परन्तु महापंडित ने जैसा विकास चाहा था, वैसा विकास उसमें हो नहीं रहा था। माता-विहीन पुत्र पर कठोरता बरतना महापंडित नहीं चाहते थे। रुद्रयश का व्याकरणज्ञान और सामान्यज्ञान कुछ ठीक था..... परन्तु साहित्य, काव्य और जैनदर्शन में वह सर्वथा मंद था। रुद्रयश चौदह वर्ष का किशोर हुआ। उसका शरीर खिल उठा। उसकी भुजाएं शक्तिशाली थीं। आसपास के किशोरों के साथ मारपीट करना, उन्हें पछाड़ना आदि के कारण शिकायतें आना प्रतिदिन का कार्य बन गया था। पंडितजी इस विषय में रुद्रयश को धमकाते, परन्तु रुद्रयश अपनी भूल स्वीकार कभी नहीं करता। यह दूषण उसमें वृद्धिंगत हो रहा था। और पन्द्रहवें वर्ष में प्रवेश करते ही रुद्रयश पाठशाला में न जाकर आवारास्थलों में घूमने में अधिक रस लेने लगा। ३६ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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