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________________ उसका देवर कुछ दूरी पर था। वह भी आ पहुंचा... अन्य स्त्रियां भी आ पहुंची। देवर बोला-'भाभी! कोई कछुआ तो नहीं था न?' 'क्या कछुआ आदि जलचर प्राणी स्वर्णमेखला को खींचेगा?' 'परन्तु यहां तो कोई दीख ही नहीं रहा है।' कटिमेखला की खोज प्रारंभ हुई। गंगा में गोताखोर उतर पड़े। परन्तु । कटिमेखला को झपट कर रुद्रयश पानी में ही तैरता हुआ दूर जा निकला। श्वास लेने के लिए सिर निकाला। फिर वह निश्चिन्तता से तैरता हुआ तीसरे घाट की ओर चल पड़ा। तीसरे घाट पर अनेक नर-नारी थे। उसके साथी भी एक ओर खड़े थे। उनके पास पहुंचकर वह एक चादर को ओढ़े, उनके साथ निर्जन स्थान की ओर चल पड़ा। वस्त्र-परिवर्तन कर, कटिमेखला को चादर में छुपा, रुद्रयश साथियों से बोला-'बोलो, अब इसे बेचना कहां है?' एक साथी बोला-'इसे बाजार में तो बेचा नहीं जा सकता। यदि हम किसी द्यूत क्रीड़ागृह में जाएं तो वहां यह बेची जा सकती है।' तो चलें, हम वहीं इस माल को बेचेंगे, रुद्रयश ने कहा। तीनों मित्र द्यूतगृह की ओर प्रस्थित हुए। वहां पहुंचकर रुद्रयश ने कटिमेखला बाहर रखी....... लगभग सौ सोनैयों की मूल्य वाली कटिमेखला का केवल पचीस सोनैये ही मिले। द्यूतगृह से वे बाहर आए। रुद्रयश ने दोनों साथियों को पांच-पांच सोनैया दिए। एक मित्र बोल उठा-'रुद्रयश! यह कैसा न्याय? सबको समान मिलना चाहिए।' ___ 'साहस मैंने किया, जोखिम मैंने उठाई और गंगा के तीव्र प्रवाह में मैं उतरा..... बोलो..... समान भाग कैसे मांग रहे हो? फिर भी मैंने तुम दोनों को पांच-पांच सोनैये दिए हैं....... और जिस दिन तुम भी मेरे जैसा साहस करोगे तो मैं समान भाग की मांग नहीं करूंगा... तुम जो दोगे, वही मैं लूंगा।' रुद्रयश ने यह कहकर दोनों को एक-एक मुद्रा और दी। यह प्रथम चोरी थी और माल को यथास्थान पहुंचाना था, अत: रुद्रयश को घर पहुंचने में विलंब हो गया...... वह मध्याह्न में घर पहुंचा..... महापंडित प्रतीक्षा में बैठे थे। और इतना विलंब हो जाने पर उन्होंने रुद्रयश को खोजने के लिए दो आदमियों को भेज रखा था। अपने एकाकी पुत्र को इतने विलंब से आते देख पंडितजी ने वेदनाभरे स्वरों में कहा-'रुद्र! इतना विलंब कैसे हुआ? मुझे तो बहुत चिंता हो गई थी। माधव और लक्ष्मण तुम्हें ढूंढने कब के ही निकल गए हैं. इतना विलंब उचित नहीं है।' "पिताजी! कोई परदेशी यजमान गंगातट से पांच ब्राह्मण किशोरों को ३८ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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