SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हूं...' यह कहकर वह शीघ्रता से वन में गया और लकड़ियों का भारा लेकर वहां आ पहुंचा। दूसरी बार गया और एक भारा और ले आया। सभी लकड़ियों को उस जलती हुई चिता पर व्यवस्थित किया।' चिता प्रज्वलित हो उठी। सुदंत ने अपना धनुष, तूणीर, छुरिका, चकमक पत्थर आदि एक ओर रख दिए और जब चिता की ज्वाला आकाश को छूने लगी तब वह अपने पाप का प्रायश्चित्त करने के मनोभाव से प्रज्वलित चिता में कूद पड़ा। न वह चीखा और न कोई व्यथा जतलाई। अभी सूर्यास्त नहीं हआ था। ढलते सूर्य का प्रकाश पूरे विश्व को भिगो रहा था और उपवन में पक्षियों के कलरव ने सारे वन-प्रदेश को गुंजित कर डाला। दो-दो रातें बीत गईं। सुदंत नहीं लौटा। वासरी के पिता तथा अन्य पारधी गहरी चिन्ता में डूब गए। सोचा-वन-शिकार का काम है। कहीं कोई वन्यपशु के साथ संघर्ष हुआ हो और सुदंत घायल हो गया हो....... नहीं....... नहीं........ नहीं...। सुदंत को खोजने निकलना चाहिए। मुखिया की आज्ञा से चार टोलियां सुदंत की खोज में निकल पड़ीं। इनमें से एक टोली को सुदंत के पदचिह्न मिल गए और वह टोली उन पदचिह्नों का अनुसरण करती हुई वनप्रदेश में आगे बढ़ी। वासरी की मनोव्यथा का अन्त नहीं था। वह अनन्त थी। मनमाने पति का सुयोग मिले अभी कुछ ही समय बीता था। मैंने उन्हें रोका, किन्तु वे वचन निभाने, मेरे लिए दंतशूल लाने चल पड़े.... कितने प्रेमी थे मेरे कान्त! हंसमुख चेहरा, शौर्य झलकाती आंखें, वज्र के समान छाती और काया में धड़कती अपार शक्ति.... अरे! मेरे पति का क्या हुआ होगा? उनका निशाना अचूक था...... किसी पशु के पंजों में फंसने वाले वे नहीं थे......लगता है हाथी की टोह में कहीं दूर निकल गए हों!...... जंगल में कहीं मार्ग भूलकर भटक गए हों..... पूरे वनप्रदेश को वे अपने पैरों से रौंद चुके हैं, फिर भटकाव कैसा ?......' तो फिर वे आए क्यों नहीं ? दूसरे दिन आने का वादा कर गए थे...... आए क्यों नहीं....। दो दिन और बीत गए। वासरी अपने पिता के घर पर ही थी। उसकी सखियां उसे धैर्य बंधाती....." आश्वस्त करने का प्रयत्न करतीं...... किन्तु अब धैर्य रखना उसके लिए कठिन हो गया था। दो टोलियां निराश होकर आ पहुंची थीं। __ तीसरी टोली मध्याह्न के समय आकर मुखिया से बोली-'मुखिया दादा! पहले इस सामान की पहचान कर लो।' ३२ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy