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________________ अपना धनुष-बाण, तूणीर और छुरिका लेकर घर से निकल पड़ा....... मैं कल लौट आऊंगा वासुरी! तुम धैर्य रखना।..... वासरी अपने पति को जाते हुए देखती रही...... उसके नयन सजल हो गए थे। नवविवाहित के हृदय को एक दिवस का पति-वियोग भी असह्य होता है। चाहे स्त्री हो या पुरुष। जब वे परस्पर विलग होते हैं तब मोह रूपी प्रेम मिलने की आकांक्षा से नि:श्वास डालता रहता है। ___वनप्रदेश अंगदेश का एक भाग ही था। अंगदेश का स्पर्श करती हुई गंगा नदी हिलोरें मारती हुई बहती रहती है। सुदंत हाथी के शिकार के लिए प्रात:काल प्रस्थित हो गया था। पांच कोस की दूरी पर गंगा के किनारे वह आ पहुंचा। गंगा के किनारे एक वृक्ष के नीचे वह बैठ गया और हाथ-मुंह धोकर भोजन करने बैठा। भोजन करते-करते उसे वासरी की स्मृति हो आई ...... या तो वह झोंपड़ी में अकेली बैठी होगी अथवा अपने पिता के घर चली गई होगी। बार-बार वह मेरी स्मृति करती होगी। __ ऐसे विचारों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है...... केवल एक महीने का सहवास..... मिलाप अच्छा..... स्वभाव अच्छा। सुदंत जलपान कर विश्राम करने की सोच रहा था। उसे याद आया...." अरे, यहां से आधे कोस की दूरी पर गंगा से लगा एक सुंदर तालाब है.. उस तालाब में अनेक बार मध्याह्न समय में जलक्रीड़ा करने के लिए हाथी आते हैं। तालाब के आसपास एक छोटा उपवन भी है, जहां विभिन्न प्रकार के पक्षी चहचहाट करते रहते हैं....... मैं वहीं जाऊं..... यह सोचकर वह वहां से उठा और अपने शस्त्र लेकर तालाब की ओर चल पड़ा। छोटा किन्तु सुंदर सरोवर..... रमणीय उपवन और विविध प्रकार के हंस, सारस, चक्रवाक आदि पक्षियों का समूह। जनशून्य यह सरोवर वन की शोभा के समान था। मध्याह्न काल का समय। कुछेक पक्षी उपवन में कल्लोल कर रहे थे। उनमें एक चक्रवाक का युगल अद्भुत दीख रहा था। यह युगल सरोवर के किनारे क्रीडारत था। नर सुंदर था तो मादा चकवी भी सुंदर थी। दोनों अपनी चोंच के माध्यम से एक-दूसरे को चूम रहे थे। चकवी अपने प्रियतम की रेशमी रोओं वाली काया को बार-बार पंपोल रही थी...... इसी प्रकार चकवा अपनी प्रियतमा की सुंदर काया का स्पर्श कर आनन्दित हो रहा था। वे परस्पर बातें भी करते थे...... किन्तु पक्षियों की भाषा को मनुष्य समझ नहीं सकता.' इसी प्रकार मनुष्य की भाषा को पशु-पक्षी भी नहीं जानते, किन्तु सभी की भावना ज्ञात होती ही है। सुख-दु:ख का अनुभव जैसे पूर्वभव का अनुराग / २७
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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