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________________ 'झोंपड़ी भी तो वन में ही है न ?' चलें। सुदंत ने पत्नी की बात को मान लिया । दोनों वहां से अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़े। ४. चकवा : चकवी यौवन का उभार हो, शरीर स्वस्थ और बलिष्ठ हो, चिंताशून्य जीवन हो, वनराजी के मध्य निवास हो, उमंगभरे दो हृदय हों और सहजीवन का प्रारंभकाल हो ! ऐसा सुयोग मिलने पर कौन मनुष्य स्वर्ग-सुखों की कामना करेगा ? सुदंत और वासरी के सहजीवन के पन्द्रह दिन पूरे हो चुके थे। आज सोलहवां दिन था। सहजीवन की प्रथम रात्रि में वासरी ने हाथी के दो दंतशूल मांगे थे और सुदंत ने उन्हें लाने का वचन दिया था। आज वह वन में किसी विशाल हाथी के शिकार के लिए तत्पर हुआ, तब वासरी बोली- 'अभी मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगी।' सुदंत रुक गया। दो दिन बीत गए। तीसरे दिन सुदंत बोला- 'वासरी ! आज मेरे लिए भाता बनाकर रखना 'क्यों, किसी ओर जाना है?' वासरी ने आश्चर्यभरे स्वरों में कहा। 'हाथी के शिकार के लिए 'क्यों?' 'इतने समय में ही भूल गई ? तेरे लिए दन्तशूल लाने हैं।' 'इतनी उतावल क्या है ? और मैं इस झोंपड़ी में अकेली कैसे रह पाऊंगी?' 'किन्तु मैंने जो तुझे वचन दिया है, उसका पालन तो मुझे करना ही है । ' 'दो-चार महीनों के बाद वासरी ने समय को लंबा किया। सुदंत बोला- 'नहीं वासरी! कार्तिक मास प्रारंभ हो चुका है सकता है, उसका शिकार किया जा सकता है। ' जो काम करना है उसे करने में ही लाभ है। इस ऋतु में हाथी को सहजता से पकड़ा जा 'तो फिर मुझे भी साथ ले जाओ।' 'पगली ! क्या पुरुष कभी स्त्री को साथ लेकर शिकार के लिए जाता है ? और यह भी हाथी का शिकार ! इसके लिए वन में दूर-दूर तक भी जाना पड़ता है एक बात तू मेरे साथ रहे तो मेरा मन तेरे में ही पिरोया रहेगा, जो काम करना है वह नहीं होगा। दूसरी बात ऐसे जोखिमभरा काम तेरे लिए व्यर्थ है वासरी ने सुदंत को नहीं जाने दिया । किन्तु कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुदंत ने वासरी को ज्यों-त्यों समझा कर २६ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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