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________________ 'मेरे पूर्वभव के प्रियतम चक्रवाक !' आपकी छाया सदृश चक्रवाकी ने इसी नगरी के नगरसेठ ऋषभसेन के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया है। और आप यह बात मेरे द्वारा प्रस्तुत चित्रांकनों से जान चुके हैं, यह मुझे ज्ञात हो गया है। मुझे यह भी पता लगा है कि आप मुझसे मिलने के लिए बेताब हैं और अभी तक न मिलने के कारण आप विषादग्रस्त भी हुए हैं। आपके मित्रों के माध्यम से आपके पिताश्री के कानों तक मेरे साथ सगाई की बात पहुंची है, ऐसा अनुमान लगा है। आज ही आपके पिताश्री मेरे पिताजी के पास मांग लेकर आए थे, परन्तु मांग स्वीकार नहीं हुई। मुझे इससे बहुत दु:ख हुआ और संभव है आपको भी इससे खिन्नता हुई होगी। अब मेरी एक प्रार्थना है कि आप आवेश में किसी भी प्रकार का गलत कदम न उठायें " यदि पूर्वजन्म के स्नेहबंधन का धागा अटूट है तो दोनों निराशा के अंधकार में फंसे होने पर भी मिलन के मार्ग की प्रतीक्षा करना ही समझदारी होगी। मैं एक क्षण भी आपके बिना रह नहीं सकती, ऐसी परिस्थिति के होने पर भी मिलन की आशा से आशान्वित हूं। इसलिए यदि पूर्वजन्म का स्नेह अटूट है तो दोनों के मिलन से पूर्व आप ऐसा कोई कदम न उठाएं जिससे स्नेह का बंधन टूट जाए। मैं जीवित हूं, इसीलिए कि पूर्व जन्मगत स्नेह बंधन अटूट है। मैं जीवित रहूंगी, इसीलिए कि दोनों का स्नेह जीवित रहे अधिक क्या लिखूं ? यह पत्र मेरी प्रिय सखी सारसिका आपके पास ला रही है। वह आपको विस्तार" से सारी बातें बताएगी आप नि:संकोचभाव से उसके साथ संदेश भेजेंगे। मैं हूं आपकी तरंगलोला पूर्वभव की प्रिय चक्रवाकी और इस भव की तरंगलोला पत्र लिखकर तरंगलोला ने सारसिका को दिया। सारसिका ने पूरा पत्र पढ़ लिया। फिर तरंग ने उस पत्र को कमलपुट में रखा, उसको कमलतंतुओं से वेष्टित कर सारसिका को सौंपते हुए कहा - 'सखी! भोजन का समय हो गया है, इसलिए तू भोजन से निवृत्त होकर वहां जाना । इतना याद रखना कि मैं स्नेह को जीवित रखने जी रही हूं" तू उनको कहना कि हम एक-दूसरे को प्रेमालु के रूप में पहचान चुके हैं। अतः पुनः भव का विप्रयोग न हो, इतना धैर्य दोनों को रखना जरूरी है। शेष तू मेरी सारी बातें उन्हें बताएगी ही । ' सारसिका पत्र को अपने उत्तरीय के अंचल में बांधकर भोजन करने गई । भोजन से निवृत्त होकर मध्याह्न के समय सारसिका धनदेव सेठ के भवन की ओर चल पड़ी। वह भवन के मुख्य द्वार पर आई। वहां आठ प्रहरी बैठे थे। उसने सोचा - भीतर कैसे जाऊं? उसने एक प्रहरी के पास जाकर कहा - 'छोटे सेठ भवन में हैं ?' 'हां बहिन ! भवन में ही हैं। वे पांच-सात दिनों से भवन के बाहर आते ही नहीं । तुम्हें क्या काम है ? ' पूर्वभव का अनुराग / ९९
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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