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________________ प्रत्यक्ष ज्ञानियों की अनुभूति का सच है कि जिसका पूर्व और पश्चात् नहीं, उसका मध्य भी संभव नहीं। जिसका मध्य है, उसका पूर्वापर अस्तित्व भी निश्चित है। वर्तमान जीवन जन्म-मरण की अविच्छिन्न परम्परा की मध्यवर्ती कड़ी है | चेतन के अस्तित्व एवं प्राणी के व्यक्तित्व की सम्यग् व्याख्या के लिये ही कर्मवादी अवधारणा का उदय हुआ है। अतीत के कर्मों एवं वर्तमान के उत्थान - पतन, आरोह-अवरोह की प्रक्रिया को कर्मवाद एक निश्चित आकार देता है। जन्म के प्रथम उच्छ्वास से लेकर अन्तिम समय तक घटित घटनाओं, दुर्घटनाओं का उपादान प्राणी का अपना कर्म ही है। परिस्थितियां निमित्त मात्र हैं। कर्म की विद्यमानता में पुनर्जन्म की संभाव्यता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। पुनर्जन्म के सिद्धांत का तार्किक आधार आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व और क्रिया प्रतिक्रिया है। एक विचारधारा पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करती। उनका तर्क है कि शरीर की तरह आत्मा प्रत्यक्ष नहीं होती। यदि चेतना की त्रैकालिक सत्ता है तो वह दिखाई क्यों नहीं देती ? पुनर्जन्म है तो उसकी स्मृति सबको क्यों नहीं होती ? अत: उनके मत में आत्मा है किन्तु उसका संबंध वर्तमान से है। अतीत और भविष्य से उसका संबंध तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। वैज्ञानिकों ने भी लम्बे समय तक पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया। उनकी पहुंच भौतिक जगत् तक ही रही। उनके प्रयोग और परीक्षण का आधार भी मात्र भौतिक जगत् रहा है। किन्तु जब से विज्ञान ने जगत् के सूक्ष्म रहस्यों का अन्वेषण शुरू किया है, एक नई क्रांति घटित हो रही है। अब यह धारणा बन रही है कि भौतिक जगत् के पीछे भी कोई अभौतिक तत्त्व (आत्मा) क्रियाशील है। पंचम अध्याय में कर्म-मुक्ति में क्रिया की क्या भूमिका है? इस पर विचार किया गया है। बंधन का मूल हेतु क्रिया है, यह सर्वसम्मत है। मुक्ति में भी क्रिया की भूमिका रहती है, यह अन्य किसी भी दर्शन में मान्य नहीं है। अकर्म अथवा अक्रिया ही मुक्ति का साधन मानी गई है। ऐसी स्थिति में इस अध्याय में यह स्पष्ट किया गया है कि क्रिया कर्मबंधन की तु ही नहीं होती है। शुभ योग से शुद्ध योग और शुद्ध योग से क्रमशः अयोग की स्थिति में प्रवेश प्राप्त कर कर्मों को समाप्त भी किया जा सकता है। साधना के द्वारा व्यक्ति क्रियाशून्य हो जाये तो क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र भी स्वतः रूक जाता है और कर्म-परमाणुओं का भी संबंध हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है। क्रियाशून्य कैसे हुआ जा सकता है। इसके लिए संवर, निर्जरा, अन्तक्रिया आदि के स्वरूप और प्रक्रिया को समझना अत्यावश्यक है। XXXVI
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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