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________________ श्या जीवात्मा को पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ भावों से जोड़ती है। जीव का मूल स्वरूप शुद्ध चैतन्य है। संसार दशा में उसका वह शुद्ध स्वरूप कर्म - परमाणुओं से आच्छादित रहता है। जीव निरन्तर अपने प्रयत्नों से कर्म के प्रभाव को कम करने का प्रयास करता है। कर्म का मूलोच्छेद किए बिना उसके प्रभाव से पूर्ण रूप में नहीं बचा जा सकता। फलत: उदयभाव बना रहता है। इस प्रकार कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि के परिणाम स्वरूप जीव की जो विविध दशाएं बनती हैं वे ही भाव हैं। - श्या और भाव के अलावा इस अध्याय में जैन कर्म सिद्धांत की विशिष्टताकर्म की पौद्गलिकता, मूर्त-अमूर्त का सम्बन्ध, विपाक - परम्परा, द्रव्यकर्म-भावकर्म, कर्मों के प्रकार, कर्म-बंध के हेतु आदि अनेक विषयों की चर्चा की गई है। चतुर्थ अध्याय में चेतना की सूक्ष्म स्पंदनात्मक क्रिया और पुनर्जन्म विषयक विचार किया गया है। कर्मफल भोग के लिए पुनर्जन्म की संभावना को सभी आस्तिक दर्शनों ने एकमत से स्वीकार किया है। कर्म के बिना न पुनर्जन्म का अस्तित्व है, न प्राणी जगत् की विविधता की व्याख्या की जा सकती है। यह निश्चित नियम है कि कर्म बिना फल दिये नष्ट नहीं होता। कडाणं कम्माणं पुव्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता अर्थात् कृत कर्मों का फल भोगे बिना प्राणी की मुक्ति नहीं होती। कर्म यदि एक जन्म में फल नहीं दे पाता है तो आगामी जन्म में देता है। सामान्य से सामान्य कर्म भी भोगे बिना नष्ट नहीं होता, संस्कार रूप में जीव के साथ संलग्न रहता है। वर्तमान जीवन पिछले जन्म के कर्मों द्वारा संचालित एवं नियंत्रित है। तपस्या से कभी बिना भोगे भी समाप्त किया जा सकता है। हां, तपस्या आदि विशेष प्रवृत्ति से कर्मों को बिना भोगे भी समाप्त किया जा सकता है। कर्मों की स्थिति आदि को बदलना पुरुषार्थ के हाथ में है। पुनर्जन्म का आधार है- आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व तथा कर्म - पुद्गलों का आत्मा के साथ अनादि सम्बन्ध पूर्वकृत कर्मों का भोग एवं नये कर्म - संस्कारों का संचय संसारी आत्मा का स्वभाव है। संचित संस्कारों से प्रेरित होकर जन्म-मृत्यु की परम्परा चलती है। पुनर्जन्म का बोध तीन प्रकार से संभव है (i) प्रत्यक्षज्ञानी या अतीन्द्रिय ज्ञानी (ii) तार्किक धरातल (iii) वैज्ञानिक - अनुसंधान - XXXV
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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