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________________ बंध और मोक्ष अध्यात्म जगत् के प्रमुख प्रत्यय हैं। आध्यात्मिक साधना का मूल लक्ष्य है - बंधन मुक्ति । बंधन और मुक्ति एक सिक्के के दो पहलु हैं। ये दोनों आत्माधारित हैं। 'बंध- पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव ।' बंधन और मुक्ति तुम्हारे भीतर ही है । 'कर्मबंधन' की प्रक्रिया में प्रवृत्ति रूप (योग रूप ) मानसिक, वाचिक, कायिक क्रिया का निमित्त केवल प्रकृति बंध और प्रदेश बंध तक सीमित है। 'अनुभाग बंध' और 'स्थिति बंध' जो कषाय की आंतरिक स्थिति पर आधारित है, उसका संबंध 'क्रिया' यानि चेतना के सूक्ष्म स्तर, जिस हम अध्यवसाय, परिणाम, भाव आदि के रूप में व्याख्यायित करते हैं, के साथ हैं। जैसे 'अव्रत आश्रव' में 'अप्रत्याख्यान क्रिया' कर्म बंध का कारण बनती है, न कि मन-वचन का या योग । इसी प्रकार क्रिया का विस्तृत विवेचन यह सिद्ध करता है कि जन्मान्तर में भी वे पुद्गल 'क्रिया' के कारण 'कर्मबंध' के निमित्त बन जाते हैं यदि वे किसी भी रूप में प्राणातिवात आदि के निमित्त बनते हैं । अस्तु बंधन है तो संवर और निर्जरा । मुक्ति का उपाय भी हैं। मोक्ष के लिए संवर, निर्जरा साधक हैं। संवर में आश्रव का निरोध होता है। संवर आश्रव का प्रतिपक्षी है। संवर मोक्ष का मूल कारण और नैतिक साधना का प्रथम सोपान हैं। कर्म - पुद्गलों का आत्मा से पृथक् होना निर्जरा है। इस प्रकार संवर निरोध तथा निर्जरा शोधन का कार्य करती है। इन दोनों के योग से कर्म - बंधन से एकान्तिक और आत्यन्तिक मुक्ति संभव है। जैन दर्शन में आत्म-विशुद्धि का मापन गुणस्थान के आधार पर किया गया है। प्रथम गुणस्थान से क्रमश: आगे बढ़ते हुए जीव आठवें गुणस्थान में पहुंचता है, वहां से ऊर्ध्वारोहण की गति तीव्र हो जाती है। ऊर्ध्वारोहण के दो माध्यम हैं - उपशम भाव और क्षय भाव। इन्हें क्रमश: उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी कहा जाता है। क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर साधक दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवें में चला जाता है। बारहवीं भूमिका में मोह कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान में प्रवृत्ति शेष रहती है। चौदहवें गुणस्थान के अंतिम चरण में सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है । समुच्छिन्न-क्रियाप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान द्वारा निष्प्रकंप स्थिति को प्राप्त कर कुछ ही क्षणों में साधक मुक्त हो जाता है, चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। मानव की प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे कोई न कोई लक्ष्य रहता है। लक्ष्य का चयन एवं निर्धारण एक जटिल प्रक्रिया है। जीवन का लक्ष्य जीवन से हटकर नहीं हो सकता । जीवन की प्रक्रिया है सदा परिवेश के प्रति क्रियाशील होती है। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को तोड़ते रहते हैं और जीवन अपनी XXXVII
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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