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________________ उदय के बीच कितनी अवस्थाएं घटित होती हैं। वे किस सीमा तक आत्म-स्वातंत्र्य को प्रभावित या अभिव्यक्त करती है। इस सम्बन्ध में काफी चिन्तन हुआ है। उदय, उदीरणा आदि दस अवस्थाएं कर्म - सिद्धांत के विकास की सूचक है। 102 गोम्मटसार में दस अवस्थाओं को दस करण की संज्ञा दी है। जीव के शुभाशुभ परिणामों को करण कहा गया है। 103 वे दस अवस्थाएं इस प्रकार हैं ( 1 ) बंध ( 3 ) उदय (5) उदवर्तना (7) संक्रमण (9) निधति (2) सत्ता (4) उदीरणा (6) अपवर्तना ( 8 ) उपशम ( 10 ) निकाचना (1) बंध - बंध का सामान्य अर्थ है - संश्लेष | जैनेन्द्र सिद्धांत कोश के अनुसार अनेक पदार्थों का मिलकर एक हो जाना बंध है। 104 बंध के संदर्भ में आत्मा और कर्मपुद्गलों का मिल जाना बंध है । उमास्वाति के शब्दों में- कषाय के कारण जीव का कर्म पुद्गलों से संबंध हो जाना ही बंध है। 105 आचार्य तुलसी ने जीव द्वारा कर्म-पुद्गलों का ग्रहण तथा क्षीर-नीर की तरह एकीभूत होने को बंध कहा है। 106 बंधन आत्मा का अनात्मा से, चेतन का जड़ से, देही का देह से संयोग है। इस संदर्भ में कर्म-बंध के तीन रूप प्राप्त होते हैं जीव बंध- जीव की पर्याय भूत रागादि प्रवृत्तियां, जो उसे संसार के साथ जोड़ती है। अजीव बंध- परमाणुओं में विद्यमान स्निग्ध- रूक्ष स्पर्श से परमाणु का परस्पर जुड़ना। उभय बंध- आत्म-प्रदेशों के साथ होनेवाला कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध । (2) सत्ता - अबाधाकाल या विद्यमानता को सत्ता कहते हैं। 107 बंध और विपाक के बीच की अवस्था सत्ता है। सत्ताकाल में कर्म अस्तित्व में रहते हैं किन्तु उनका कर्तृत्व प्रकट नहीं होता। प्रत्येक कर्म अपने सत्ताकाल की समाप्ति पर ही फल देते हैं। कालमर्यादा पूर्ण न होने तक धान्य-संग्रह के समान कर्म अस्तित्व में ही रहते हैं। - (3) उदय- कर्म के विपाक को उदय कहा है। 108 सत्ता काल पूर्ण होने के साथ क्रिया और पुनर्जन्म 209
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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