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________________ प्रथम प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने कहा- गौतम ! किसी एक प्राणी के मारने का त्याग करने वाला भी एकान्त बाल नहीं कहलाता, उसे बाल पंडित कहा जाता है। 156 इस प्रकार आगम साहित्य में संयतासंयत के प्रत्याख्यान सम्बन्धी अनेक प्रमाण मिलते हैं। 157 अप्रत्याख्यान - क्रिया के पांच प्रकारों के प्रसंग में एक प्रश्न और उठता है कि संयतासंयत के अप्रत्याख्यान क्रिया निरन्तर होती है फिर भी उसकी विवक्षा नहीं की और प्रमत्त संयत के आरंभिक क्रिया कादाचित्क है। इसके बावजूद भी उसकी विवक्षा की है, ऐसा क्यों? इस विवक्षा भेद के पीछे रहे कारण को समझने से तथ्य स्पष्ट हो जाता है। संयतासंयत देश - विरति गुणस्थान में कर्म-बंध की चर्चा पंच-संग्रह में प्राप्त है। वहां अविरति को कर्म-बंध का मिश्र या आधा हेतु माना गया। 158 प्रश्न यह भी है कि प्रमत्त संयत में आरंभिकी क्रिया स्वीकार की है तो पारिग्राहिकी क्यों नहीं ली गई ? जैसे प्रमत्त संयत के कादाचित्क प्राणी की हिंसा हो जाती है वैसे धर्मोंपकरण पर भी मूर्च्छा संभव हो सकती है। उक्त प्रश्न का समाधान भगवती में उपलब्ध है। 159 वृत्तिकार के अभिमत से परिग्रह के दो प्रकार है- धर्मोपकरण के अतिरिक्त वस्तु का ग्रहण और धर्मोपकरण पर मूर्च्छा | 160 प्रमत्त संयत मुनि अनारंभी भी होता है, अपरिग्रही भी । अशुभयोग की अपेक्षा आरंभ मानकर आरम्भिकी क्रिया भी स्वीकार की है। पारिग्रहिकी क्रिया का सम्बन्ध अविरति से है। प्रमत्त संयत अविरति का प्रत्याख्यान कर देता है इसलिये पारिग्राहिकी क्रिया का ग्रहण नहीं किया है। छठे गुणस्थान में अठारह आश्रव होते हैं। मिथ्यात्व आश्रव और अविरति आश्रव नहीं होते। क्रियाओं की व्याप्ति का नियम पन्नवणा के अनुसार यह है कि जिसके आरंभिकी क्रिया है, उसके पारिग्रहिकी क्रिया विकल्पतः होती है और पारिग्रहिकी क्रिया के साथ आरंभिकी नियमत: होती है। 161 इसी प्रकार आरंभिकी के साथ माया-प्रत्यया की व्याप्ति है। किन्तु उसके साथ आरंभिकी कादाचित्क है। आरंभिकी के साथ अप्रत्याख्यान क्रिया का विकल्प है। अप्रत्याख्यान के साथ आरंभिकी निश्चित है। आरंभिकी के साथ मिथ्यादर्शन का भी विकल्प है। किन्तु मिथ्यादर्शन के साथ आरंभिकी अवश्यंभावी है। यह क्रिया का सिद्धांत मन से परे का सिद्धांत है। पृथ्वीकाय से लेकर अमनस्क पंचेन्द्रिय तक के जीवों में पांचों क्रियाएं होती हैं। इसका फलित स्पष्ट हैं कि आत्मा का अस्तित्व मन से परे बहुत गहरे में है। मन केवल उसका सतही स्तर है। क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 85
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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