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________________ उपर्युक्त क्रिया पंचक के संदर्भ में जहां तक जीव की सक्रियता और अक्रियता का प्रश्न है, जीव सक्रिय एवं अक्रिय दोनों प्रकार का होता है। जीव दूसरे जीव की अपेक्षा त्रिक्रिय, कदाचित् चतुष्क्रिय, कदाचित् पंचक्रिय होता है। तीन क्रियाएं प्रत्येक अविरत प्राणी में अवश्यंभावी हैं। किसी को कष्ट देने पर वह चार और प्राणघात करने पर पांच क्रियाओं से भी स्पृष्ट होता है। असंयम पूर्वक उठाये गये कदम से दो क्रियाएं लगती हैं। तीसरी क्रिया का सम्बन्ध राग-द्वेषात्मक वृत्ति से है। जिस प्रकार वर्तमान जीवन की अपेक्षा से क्रिया होती है उसी प्रकार अतीतकालीन जीवन की अपेक्षा से भी क्रिया होती है। अतीत का शरीर या उसका कोई अंग हिंसा में व्याप्त होता है तो वह उस हिंसा का अधिकरण कहलाता है। उसके कारण से जीव पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। उदाहरण के लिए किसी एक व्यक्ति ने बाण फैंका। हिरण मरा। बाण फैंकने वाले को तो पांच क्रियाएं लगती ही है किन्तु जिन जीवों के शरीर से बाण का निर्माण हुआ वे जीव भी पांच क्रियाओं से लिप्त होते हैं। यद्यपि यह बात सहज बुद्धिगम्य नहीं है किन्तु जैनागम इसका आधार है। भगवती वृत्तिकार ने भी प्रश्न उपस्थित किया है कि यदि अचेतन शरीर से भी कर्म का बंध हो तो मुक्त जीवों का शरीर भी प्राणातिपात का हेतु बन सकता है। वनस्पति के जीवों के शरीर से पात्र आदि धार्मिक उपकरणों का निर्माण होता है। उनसे जीव रक्षा भी की जाती है अत: वनस्पति के जीवों को पुण्य-कर्म का बंध होना चाहिये। इस संदर्भ में विचार यह है कि कर्मबंध का सम्बन्ध मूलतः अविरति से है। अविरति का परिणाम जैसे हिंसक पुरुष में है वैसे ही उन जीवों में है जिनके शरीर से धनुष्य आदि बना है। अविरति की दृष्टि से पाप-कर्म की क्रिया मानी गई है, न कि शरीर से संबंध होने मात्र से। मुक्त जीवों में अविरति नहीं है। इसलिये उनका शरीर यदि प्राणातिपात का निमित्त बने तो भी उनके कर्म-बंध नहीं होता। उसी प्रकार जिन जीवों के शरीर से पात्र आदि का निर्माण हुआ, उनमें पुण्य का हेतुभूत विवेक नहीं है। अतः उनके पुण्य-बंध नहीं होता। पाप की हेतुभूत अविरति निरन्तर रह सकती है किन्तु पुण्य की हेतुभूत शुभ प्रवृत्ति निरन्तर नहीं रहती। यह विवेक या प्रयत्न जन्य होती है। वृत्तिकार की समीक्षा कुछ आलोचनीय भी है। अविरति का परिणाम धनुर्धर और जिनके शरीर से धनुष्य आदि बनाया गया, उन जीवों में समान हो सकता है किन्तु कर्म-बंध का हेतु केवल अविरति का परिणाम ही नहीं, शरीर और मन का दुष्प्रयोग भी साथ में संपृक्त है। 54 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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