SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कायिकी क्रिया के दो भेद अनुपरत और दुष्प्रयुक्त इसे स्पष्ट करते हैं। धनुर्धर के काया का योग अशुभ है। अत: उसके उक्त दोनों क्रियाएं होती हैं। बाण निर्वर्तक शरीर वाले जीवों के केवल अनुपरत क्रिया होती है, दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया नहीं। शेष क्रियाएं भी उन जीवों को इसलिये स्पृष्ट करती हैं कि उनके परिताप देने आदि का त्याग नहीं है। बाण फेंकने वाले का मनोयोग और काययोग- दोनों परिताप, प्राणातिपात आदि में प्रवृत्त हैं और अविरति और अशुभयोग दोनों कर्मबंध के हेतु हैं। प्रश्न है अविरति का संबंध उन दोनों से है जिनके शरीर से धनुष्य आदि का निर्माण हुआ और जिनके शरीर से नहीं हुआ, फिर क्रिया का उल्लेख उन जीवों के लिए ही क्यों जिनके शरीर से धनुष्य आदि बने हैं ? इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं। एक जिनके प्रत्याख्यान नहीं होता उनके अविरति से क्रिया लगती है और जिन जीवों के शरीर से धनुष्य आदि बना, उनका अपने-अपने शरीर से ममत्व का अनुबंध टूटा नहीं है इसलिये उनके क्रिया से स्पृष्ट होने का उल्लेख है। यहां ज्ञातव्य यह है कि किसी का त्यक्त शरीर हिंसा का निमित्त बनता है, इतने मात्र से वह हिंसा का भागी नहीं बनता अपितु पूर्व शरीर की आसक्ति से वह मुक्त नहीं है, इस कारण उसे आसक्ति रूप हिंसा का दोष लगता है न कि प्रवृत्ति रूप से।'अविरति की अपेक्षा जीव को अधिकरणी और अधिकरण भी कहा गया है। इस संदर्भ में गौतम - महावीर संवाद भी मननीय है गौतम- भंते ! कोई मृगजीवी, मृगवध का संकल्प लिये कूटपाश बांधता है। वह कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट होता है ? महावीर- गौतम ! स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय, स्यात् पंचक्रिया से युक्त होता है! गौतम-भंत ! किस अपेक्षा से यह कहा जाता है ? महावीर- गौतम ! जो व्यक्ति कूटपाश की रचना करता है किन्तु न तो मृग को बांधता है, न मारता है, उस समय वह कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जो कूटपाश से मृग को बांधता है, पर मारता नहीं उसके प्राणातिपात के अतिरिक्त चार क्रियाएं होती हैं। जो कूट पाश से बांधकर मार देता है, उसके पांच क्रियाएं होती हैं। क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 55
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy