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________________ ध्यान में रंगों का महत्त्व है। जयाचार्य इसका मूल्य जानते थे। उन्होंने रंगों के ध्यान का महत्त्व बतलाया है। चौबीसी में उन्होंने विविध तीर्थंकरों के विविध रंगों की भी चर्चा की है।" जीवन के तीसवें बसंत में युवाचार्य अवस्था में उन्होंने इस चौबीसी की रचना की। इसका रचनाकाल वि.सं. १६०० का है। उन्होंने कुल आठ दिनों में चौबीस गीतों की रचना की। प्रत्येक गीत मे सात-सात पद्य हैं। केवल एक चौदहवें गीत में आठ पद्य हैं। चौबीसी उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना है जिसको सैंकड़ों वर्षों से लोग तन्मयता पूर्वक गाते आये हैं। जयाचार्य ने इस कृति में अर्हतों की यथार्थता का उत्कीर्तन किया है। मात्र उत्कीर्तन ही नहीं किया अर्हतों के साथ तादात्म्य भी साधा। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी ने कहा-“शारीरिक और मानसिक कष्ट के समय विशेष रूप से मृत्यु के समय 'चौबीसी' का स्मरण आध्यात्मिक संबल देने वाला प्रमाणित होता है। प्रतिदिन के स्वाध्याय में भी इसके स्मरण से आत्मलीनता की स्थिति प्राप्त हो सकती है। तीर्थंकरों की स्तुति में तन्मय होकर जयाचार्य स्वयं आगमतः भाव तीर्थंकर हो गये हों तो कोई आश्चर्य नहीं"२। जयाचार्य के अनुसार "तीर्थंकर भगवान की स्तुति से अस्तित्व बोध, आत्मिक गुणों का विकास और वृत्तियों का परिष्कार होता है। अपूर्व समाधि की उपलब्धि होती है।"३ जयकृत चौबीसी का वैशिष्ट्य जयकृत "चौबीसी" उनकी भक्ति रस की एक उत्कृष्ट अमर रचना है। यह एक प्राणवान स्तुति है। यह आत्म-समाधि और आत्मानुभव का एक सशक्त और पुष्ट आलम्बन ग्रंथ है। इसमें साधना के अनेक प्रयोग और पद्धतियां हैं। आगमिक गूढ़ तत्त्वों के रहस्यों को सरल शैली में प्रस्तुति दी गई है। भक्ति के साथ तत्त्वज्ञान को भी इसमें पूरा स्थान मिला है। भक्ति संभृत होने के कारण इसमें शांत, वैराग्य आदि रसों का आस्वादन चरण-चरण पर मिलता है। यत्र तत्र वीर रस भी प्रवाहित हुआ है। साधना का संदेश, श्रद्धा, समर्पण, संयम और सत्य की अभिव्यक्ति को इसमें महत्त्व के साथ दर्शाया गया है। यह कालजयी एवं क्षेत्रजयी कृति सम्पूर्ण साधक समाज के लिए पठनीय तथा नित्य स्मरणीय है। इस काव्य की एक-एक पंक्ति श्रद्धापूर्वक हृदय सागर की अतल गहराई से उठी हुई हिलोर है जिसका स्पर्श पाते ही कान पवित्र हो जाते हैं। वाणी से उच्चरित होने पर वाणी पवित्र हो जाती है। अन्तःकरण को स्पर्श करने पर विषय, वासना, अहंकार, लोभ का क्षय कर * देखें परिशिष्ट-२ १४० / लोगस्स-एक साधना-२
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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