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________________ आलंबन से ही ध्यान करते हैं, केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद तो जीवनपर्यन्त ध्यानान्तर दशा रहती है। अंतिम समय में भवान्त क्रिया करते हुए तीर्थंकर भगवन्तों के शुक्ल ध्यान के तीसरे-चौथे भेद रूप का ध्यान होता है और वे स्वयं भी मुक्त हो जाते हैं। कायोत्सर्ग-सुरक्षा कवच प्राचीन पौराणिक कथाओं में हम पढ़ते आ रहे हैं कि अमुक योद्धा युद्ध में कवच धारण करके गया जिससे शत्रु के बाणों का उसके शरीर पर कुछ भी असर नहीं हुआ। दानवीर कर्ण के विषय में प्रसिद्ध है कि उसे जन्म से ही अद्भुत कवच प्राप्त था, जिस कारण वह अजेय और अभेद्य योद्धा था। इन्द्र ने महाभारत के युद्ध के पूर्व ही अर्जुन की रक्षा हेतु ब्राह्मण बनकर कर्ण से दान में कवच और कुंडल की याचना कर ली। कर्ण ने शरीर से उतारकर कवच कुंडल ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र को दे दिये जिस कारण वह अभेद्य व अजेय नहीं रह सका। कवच बाह्य आघातों व प्रहारों से शरीर की रक्षा करता है। कायोत्सर्ग से तनाव दूर होता है और बाहरी दुष्प्रभावों से बचाव भी होता है। साधारणतया दो स्थितियों में कायोत्सर्ग का विधान है-प्रवृत्ति के बाद और कष्ट के क्षणों में। प्रवृत्ति की संपन्नता पर कायोत्सर्ग करने से शारीरिक, स्नायविक और मानसिक तनाव समाप्त हो जाता है। प्रवृत्ति के साथ उत्पन्न होने वाले दोष निरस्त हो जाते हैं। कायोत्सर्ग करने वाला चेतना के उस तल में चला जाता है जिस तल में जाने पर तैजस शरीर की सक्रियता बढ़ जाती है। वह इतना आलोक विकीर्ण करता है कि उसके पास आने वाले निस्तेज हो जाते हैं कायोत्सर्ग तैजस के विकीर्ण की एक रहस्यपूर्ण पद्धति है। वह चेतना लोक में चले जाने पर अपने आप घटित होती है। भगवान महावीर के पूर्व की घटना है। एक सुदर्शन कापालिक नाम का महामांत्रिक मंत्र साधना कर रहा था। उसे बलि देने के लिए सर्व लक्षण संपन्न पुरुष की अपेक्षा थी। एक बार भगवान पार्श्व के प्रमुख शिष्य सुदर्शन मुनि कुछ साधुओं के साथ सुकर्ण के आश्रम में पहुँचे। सुकर्ण को सर्व लक्षण संपन्न जानकर सुकर्ण ने अपने कर्मकरों को भेजा। वे उन्हें पकड़कर ले आए। मुनि ने देखा सामने देवी की मूर्ति है। स्थान-स्थान पर रक्त से सनी खोपड़ियां पड़ी हैं, वे समझ गये-मैं बलि के लिए लाया गया हूँ। उनके मन में न चिंता न भय। उन्हें बलि की वेदी पर ले जाकर खड़ा किया गया। वे कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गये। सुकर्ण ने मंत्रोच्चारण किया। उसके मुख्य शिष्य चण्ड ने मुनि के वध के लिए तलवार उठाई। वह गले ८६ / लोगस्स-एक साधना-२
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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