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________________ भगवती सूत्र श. १३ : उ. ६ : सू. ११७-१२१ करती हुई शिविका पर आरूढ हो गई, आरूढ होकर वह उद्रायण राजा के दक्षिण पार्श्व में प्रवर भद्रासन पर आसीन हुई। शेष पूर्ववत् यावत् छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशयों को देखा, देखकर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका को ठहराया। हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से नीचे उतरा, उतर कर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार किया. वंदन-नमस्कार कर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया। जाकर स्वयं आभरण, माल्य और अलंकार उतारे। ११८. पद्मावती देवी ने हंसलक्षण-युक्त पटशाटक में आभरण, माल्य और अलंकार ग्रहण किए। ग्रहण कर हार, जल-धारा, सिन्दुवार (निर्गुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार बार आंसू बहाती हुई उद्रायण राजा से इस प्रकार बोली-स्वामी! संयम में प्रयत्न करना। स्वामी! संयम में चेष्टा करना, स्वामी! संयम में पराक्रम करना, स्वामी! इस अर्थ में प्रमाद मत करना यह कह कर केशीराजा और पद्मावती ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। ११९. उद्रायण राजा ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। शेष ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया। १२०. अभीचीकुमार ने किसी दिन पूर्वरात्र और अपररात्र काल समय में कुटुम्ब-जागरिका की। जागरणा करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं उद्रायण का पुत्र प्रभावती देवी का आत्मज हूं। उद्रायण राजा मुझे छोड़कर अपने भानजे केशीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो गए हैं इस प्रकार के महान् अप्रीतिकर मनोमानसिक दुःख से अभिभूत होकर अपने अंतःपुर परिवार से संपरिवृत होकर, अपने भांड और उपकरण लेकर वीतीभय नगर से निकल गया, निकलकर क्रमानुसार विचरण और ग्रामानुग्राम घूमते हुए जहां चंपा नगरी थी, जहां कूणिक राजा था वहां आया, आकर कूणिक राजा की शरण में रहने लगा। वह वहां विपुल भोग-समिति से समन्वागत था। वह अभीचीकुमार श्रमणोपासक भी था जीव-अजीव को जानने वाला यावत् यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए विहार करने लगा। उसके मन में उद्रायण राजर्षि के साथ वैर का अनुबंध हो गया। १२१. इस रत्नप्रभा-पृथ्वी नरक के परिपार्श्व में चौसठ लाख असुरकुमार आवास प्रज्ञप्त हैं। इस अभीचीकुमार ने बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन किया। पालन कर अर्द्धमासिकी अनशन/संलेखना के द्वारा तीस भक्त का छेदन किया, छेदन कर उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर इस रत्नप्रभा-पृथ्वी नरक के परिसामंत में चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से किसी एक आतापक असुरकुमारावास में आतापक असुरकुमार-देव के रूप में उपपन्न हुआ। वहां कुछ आतापक असुरकुमार-देवों की स्थिति एक पल्योपम प्रज्ञप्त है। वहां अभीचीकुमार देव की एक पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। ५१३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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