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________________ भगवती सूत्र करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? जयंती ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त्त बना हुआ जीव आयुष्य-कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की शिथिल - बंधन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ - बन्धन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द- अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र - - अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश - परिमाण वाली करता है, आयुष्य-कर्म का बंध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता, वह असातावेदनीय कर्म का बहुत - बहुत उपचय करता है और आदि - अन्त-हीन दीर्घपथवाले चतुर्गत्यात्मक संसार - कान्तार में अनुपर्यटन करता है । श. १२ : उ. २,३ : सू. ५९-६८ ६०. भंते ! चक्षुरिन्द्रिय के वश आर्त्त बना हुआ जीव कर्म का बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है । ६१. भंते ! घ्राणेन्द्रिय के वश आर्त्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है । ६२. भंते ! रसेन्द्रिय के वश आर्त्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार- कान्तार अनुपर्यटन करता है। ६३. भंते ! स्पर्शेन्द्रिय के वश आर्त्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है ? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार - कान्तार में अनुपर्यटन करता है । ६४. वह श्रमणोपासिका जयंती श्रमण भगवान महावीर से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गई (भ. १ / १५२ - १५५) की वक्तव्यता, वैसे ही प्रवर्जित हो गई यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया । ६५. भंते ! वह ऐसा ही है । भते ! वह ऐसा ही है । तीसरा उद्देशक पृथ्वी-पद ६६. राजगृह नाम का नगर था, यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले- भंते ! पृथ्वियां कितने प्रकार की प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे- प्रथम, द्वितीय यावत् सातवीं । ६७. भंते ! प्रथम पृथ्वी का गोत्र क्या प्रज्ञप्त है ? गौतम ! घम्मा नामक प्रथम पृथ्वी का गोत्र रत्नप्रभा है, इस प्रकार जैसे जीवाजीवाभिगम प्रथम नैरयिक उद्देशक है, वह निरवशेष वक्तव्य है यावत् अल्पबहुत्व । (३) ६८. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है । ४५३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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