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________________ श. २४ : उ. १ : सू. ६२-६७ भगवती सूत्र गौतम! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव-ग्रहण, उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चार-कोटि-पूर्व-अधिक-चार-सागरोपम-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (दूसरा गमक : औधिक और जघन्य) ६३. भन्ते! वह संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव जघन्य काल की स्थिति वाली रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है? गौतम! जघन्यतः दस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः भी दस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ६४. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? इसी प्रकार वही प्रथम गमक अविकल रूप से वक्तव्य है यावत् (भ. २४/५८-६२)-काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहर्त्त-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चालीस-हजार-वर्ष-अधिक-चार-कोटि-पूर्व-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (तीसरा गमक : औधिक और उत्कृष्ट) ६५. वही संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाली रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है, वह जघन्यतः एक सागरोपम की स्थिति में, उत्कृष्टतः भी एक सागरोपम की स्थिति में उपपन्न होता है। अवशेष परिमाण आदि से भवादेश-पर्यन्त वही प्रथम गमक ज्ञातव्य है। यावत् काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-एक-सागरोपम, उत्कृष्टतः चार-कोटि-पूर्व-अधिक-चार-सागरोपम-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (चौथा गमक : जघन्य और औधिक) ६६. भन्ते! जघन्य काल की स्थिति वाला संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव जो रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह जीव कितने काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है? गौतम! जघन्यतः दस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ६७. भन्ते! वह जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? शेष वही गमक वक्तव्य है, इतना विशेष है ये आठ नानात्व हैं-१. शरीर की अवगाहना- जघन्यतः अंगुल-का-असंख्यातवां-भाग, उत्कृष्टतः पृथक्त्व (दो से नौ)-धनुष्य। २. लेश्या-प्रथम तीन लेश्या ३. सम्यग्-दृष्टि नहीं है, मिथ्या-दृष्टि है, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नहीं है। ४. ज्ञानी नहीं है, नियमतः दो अज्ञान । ५. समुद्घात-प्रथम तीन समुद्घात ६. आयु, ७. अध्यवसान, ८. अनुबन्ध-ये तीनों असंज्ञी-जीवों की भांति वक्तव्य हैं। शेष जैसा प्रथम गमक की भांति वक्तव्य है यावत् काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चार ७१८
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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